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किशोरावस्था का स्वरूप || Form of adolescence || Kishoravastha ka swaroop || CTET and TET Exam

किशोरावस्था का स्वरूप -

निश्चित तौर पर किशोरावस्था का जीवन में वह स्थान है जहाँ से अनेक रास्ते निकलते हैं। ये रास्ते अलग दिशाओं में अग्रसर होते हैं, जहाँ किशोरों को चलना होता है। इन रास्तों पर चलकर किशोर जहाँ पहुँचना चाहता है, अर्थात अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, उसे वही मिलता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी रास्ते अच्छाई या श्रेष्ठता को प्रकट करते हों, इनमें बुराई या अपराध जैसे घिनौने क्रिया कलापों को कभी प्रकट करते हैं। अतः एक पालक या शिक्षक का दायित्व बनता है कि किशोरों को उचित दिशा बतायें, जीवन का सही मार्ग दिखलायें। इस हेतु किशोरावस्था में किशोर के अनुरूप पर्याप्त अवसरों की उपलब्धता एवं उचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। शिक्षा का स्वरूप क्या हो? इसका बिन्दुवार विवरण निम्नानुसार है।

(1) शारीरिक, मानसिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा का उचित प्रबन्ध-

किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। विशेषकर उनकी मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास हो। इस हेतु शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए।
किशोरों की शिक्षा-दीक्षा में निम्न विषयों या बातों को स्थान दिया जाना चाहिए। (i) कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि।

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(ii) किशोर की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने, निरीक्षण-शक्ति को प्रशिक्षित करने आदि के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों के भ्रमणों का आयोजन करना चाहिए।

(iii) उसकी रूचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्ऩों को साकार बनाने के लिए विविध प्रतियोगिताओं जैसे- वाद-विवाद, निबंध लेखन, अन्त्याक्षरी, साहित्य गोष्ठी के अलावा विविध पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
किशोरों में अपने शरीर को सबल ब सुडौल बनाने की बड़ी इच्छा होती है अत: उन्हें पारिवारिक या विद्यालय स्तर पर, प्रोत्साहन के अलावा विविध खेल, जैसे- कबड्डी, खो-खो, कुंगफू, जूड़ो कराटे, दौड़ इत्यादि के अभ्यास हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करना चाहिए। इसी के साथ स्वच्छता एवं स्वस्थता की शिक्षा का भी प्रबन्ध होना चाहिए जिससे वे अपने परिवेश के प्रति भी सचेत हो सकें।

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(2) संवेग शोधन की उचित विधि का प्रयोग -

किशोरावस्था में किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता है। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्य-सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गन्तिरीकरण और उत्तम संवेगों का विकास कर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कला विज्ञान, साहित्य, संगीत, साँस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुन्दर व्यवस्था की जानी चाहिए।

(3) समूह संगठनों का निर्माण -

किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्व देता है और उसमें आचार व्यवहार की अनेक बाँते सीखता है। अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और सम्बंधों के पाठ सीख सकें। इस दिशा में सामुहिक क्रियाएंँ, सामुहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

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(4) उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग -

किशोर में स्वयं परीक्षण, निरिक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस प्रकार की शिक्षण विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस सम्बंध में रॉस का विचार है कि "विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए और उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बंध स्थापित किया जाना चाहिए।"

(5) उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य देना -

किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक क्रियायों, छात्र स्वशासन और युवक गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।

(6) व्यावसायिक विषयों की शिक्षा व्यवस्था -

किशोर अपने भावी जीवन में किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है, परन्तु वह यह नहीं जानता है कि कौन सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। विद्यालयों में कुछ व्यावसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुउद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

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(7) जीवन दर्शन निर्माण की शिक्षा व्यवस्था -

किशोर अपने जीवन दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य के लिए अभिभावक एवं शिक्षक की महती भूमिका होती है।

(8) नैतिक भावनाओं के विकास में सहायता -

किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों का निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। अतः उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके।

(9) उचित यौनशिक्षा का प्रबन्ध -

किशोर बालक- बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बंध उसकी काम प्रवृति से होता है। अत: विद्यालय में यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। इस शिक्षा के सम्बंध में रॉस महोदय ने लिखा है- "यौन शिक्षा की परम आवश्यकता को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस बात की बहुत आवश्यकता है कि किशोर को ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाये, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।"

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गणित शिक्षण से चिंतन एवं तर्कशक्ति का विकास करना

(10) अपराध-बोध निवृत्ति -

किशोर में अपराध की प्रवृत्ति का मुख्य कारण निराशा होती है। किशोर की निराशा को दूर करके उसकी अपराध-प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। विद्यालय उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है और इस प्रकार अपराध प्रवृत्ति को कम कर सकता है।

(11) व्यक्तिगत विभिन्नता आधारित पाठ्यक्रम -

किशोरों में व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षा-विदों ने स्वीकार किया है। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत मांगों को पूर्ण किया जा सके। इस बात पर बल देते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है- "हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रूचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।"

शिक्षक चयन परीक्षाओं के प्रश्न पत्रों को यहाँ👇 से डाउनलोड करें।
1. संविदा शाला वर्ग 3 का 2005 प्रश्न पत्र डाउनलोड करें
2. संविदा शाला वर्ग 2 का 2005 का प्रश्न पत्र डाउनलोड करें

(12) बालक-बालिका शिक्षा में भिन्नता-

किशोर एवं किशोरियों में अनेक शारीरिक अन्तर होते हैं। इसी कारण काफी हद तक मानसिकता में भी अन्तर पाया जाता है। इस कारण से लिङ्ग भेद के कारण बालक- बालिकाओं को भावी जीवन में विभिन्न कार्य करने में सफल बनाने हेतु उनके पाठ्यक्रमों में भिन्नता भी होना चाहिए।

(13) वयस्क सा व्यवहार करना -

जब बालक बाल्यावस्था पार करके किशोरावस्था में प्रवेश करता है उस समय उसके साथ बालक या शिशु के समान व्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा व्यवहार करने से उसले मन पर कई विपरित प्रभाव पड़ते लगते हैं, साथ ही उसे ऐसा लगने लगता है कि उसका भावी परिवार या समाज में विशेष महत्व एवं प्रभाव नहीं है। अत: बहुत ही सोच-समझकर उसके साथ एक वयस्क सा व्यवहार किया जाना चाहिए ताकि उसे अपनी अहमियत का अहसास हो सके।

हिन्दी भाषा एवं इसका शिक्षा शास्त्र के इन प्रकरणों 👇 के बारे में भी जानें।
1. भाषा सीखना और ग्रहणशीलता - भाषा और मातृभाषा क्या हैं? परिभाषाएँ
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उपरोक्त बिंदुओं के अलावा भी अनेक ऐसे उपाय एवं व्यवस्थाएँ हैं जिसे करके हम किशोर को उसके भावी जीवन के लिए तैयार कर सकते हैं एवं उसे परिवार, समाज व देश के लिए उपयोगी बना सकते हैं।

किशोरावस्था का महत्व

किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहांँ से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर अग्रसर होता है। शारीरिक रूप से एक बालक किशोर बनता है तब उसमें वय-सन्धि अवस्था प्रारम्भ होती है और उसमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता प्रारम्भ हो जाती है। यह अवस्था 12-13 से 18 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। इस अवस्था के आरम्भ होने की आयु लिङ्ग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था 12 वर्ष से ही आरम्भ मानी जाती है। किशोरावस्था का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इस समय किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। स्टेनले हॉल ने कहा है-
"किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।"

Click below link to read about pedagogy of Language
1. What are language and mother tongue? Definitions
2. Language learning tendencies - Curiosity, Simulation and Practice, Pedagogy of Language
3. Language skills - Basis of writing and communication Required competencies for language knowledge

I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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(संबंधित जानकारी के लिए नीचे दिये गए विडियो को देखें।)
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