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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (परिचय) : बौद्धकालीन भारत में विश्वविद्यालय― तक्षशिला, नालंदा, श्री धन्यकटक, ओदंतपुरी विक्रमशिला

लेखक परिचय— आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1804 ई. में ग्राम दौलतपुर जिला रायबरेली (उ. प्र.) मे हुआ था। उनके पिता का नाम रामसहाय द्विवेदी था। प्राथमिक शिक्षण दौलतपुर में प्राप्त करने के पश्चात् इन्होंने क्रमशः रायबरेली, फतेहपुर और बम्बई में शिक्षा प्राप्त की और जीविकोपार्जन हेतु रेलवे विभाग में नौकरी कर ली। बाद में इस्तीफा देकर वे साहित्य साधना में लग गए। सन् 1908 ई. में सरस्वती पत्रिका के संपादक का भार सम्भाला। सन् 1920 ई. तक उक्त पत्रिका का कुशल संपादन करते हुए अनेक साहित्यकारों को प्रेरणा देकर प्रकाश में लाए। उसके पश्चात अपने गाँव लौट गए। इनकी मृत्यु 21 दिसंबर सन् 1938 ई. को 74 वर्ष की अवस्था में हुई।

श्री द्विवेदी जी ने गद्य एवं पद्य दोनों में रचनाएँ की। साथ ही अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया। इनकी मौलिक गद्य कृतियों में 'कालिदास की आलोचना', 'हिंदी भाषा की उत्पत्ति', 'वनिता-विलाप', 'रसश-रंजन', 'सुकवि-संकीर्तन', 'साहित्य- संदर्भ', 'अद्भुत आलाप', 'साहित्य-सीकर', 'विचार-विमर्श' प्रमुख हैं। मौलिक पद्म कृतियों में 'देवी स्तुति-शतक', 'नागरी', 'काव्य-मंजूषा', 'सुमन' प्रमुख हैं। 'द्विवेदी, काव्य माला' में इनकी कविताएँ संग्रहीत हैं।

श्री द्विवेदी जी की रचनाओं में विषय-विविधता के साथ ही रूप विविधत भी है। आप एक सफल संपादक, चिन्तक, निबंधकार, पैने किंतु अभिप्रेरक आलोचक श्रेष्ठ अनुवादक तथा अच्छे कवि थे। उन्होंने ऐतिहासिक समीक्षात्मक, साहित्यिक विचार पूर्ण निबंधों के साथ ही संस्मरणात्मक एवं साहित्य सिद्धांतों से संबंधित गवेषणापुण निबंध भी लिखे हैं। वे केवल साहित्य निर्माता ही नहीं 'साहित्यकार-निर्माता' भी थे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवियों के निर्माण में द्विवेदी जी का हाथ था।

उन्होंने हिन्दी भाषा को व्याकरण सम्मत बनाया। उनकी सबसे बड़ी देन हिन्दी- भाषा का संस्कृतिकरण, मानवीकरण एवं स्थिरीकरण है। भारतेंदु ने खड़ी बोली को आधार प्रदान किया किंतु द्विवेदी जी ने उसे सुसंगठित तथा व्यवस्थित बनाया।

बौद्धकालीन भारत में विश्वविद्यालय द्विवेदी जी का विवरण-प्रधान निबंध है। इसमें लेखक ने तत्कालीन विश्व विद्यालयों के वर्णन के माध्यम से बौद्ध-कालीन शिक्षा-व्यवस्था, उसकी उत्कृष्टता एवं उस पर तद्युगीन प्रभाव के कारण आ वाले परिवर्तनों को स्पष्ट किया है।

बौद्धकालीन भारत के विश्वविद्यालय -आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

बौद्धकाल तीन युगों में बाॅंटा जा सकता है—
पहला युग– गौतम बुद्ध के समय से शुरू होता है और पाॅंच सौ वर्ष तक रहता है। इस युग के बौद्ध साधु चरित्र और सच्चे त्यागी होते थे।
दूसरा युग– ईसवी सन् के साथ प्रारंभ होता है और ईसा की छठीं शताब्दी में समाप्त हो जाता है। इस युग में बौद्धों ने पहले युग के गुण अक्षुण रखने के साथ-साथ शिल्पकला में भी अच्छी उन्नति की थी।
तीसरा युग– सातवीं शताब्दी से तीसरा युग लगता है। उसे तांत्रिक युग भी कह सकते हैं। उसमें बौद्ध महंतों के चरित्र बिगड़ने लगे थे और पहले की जैसी त्यागशीलता जाती रही थी। परंतु उन लोगों ने आयुर्वेद और रसायनशास्त्र में खूब उन्नति की थी। उनमें से प्रत्येक युग के विशेषत्व की छाप उस समय के विश्वविद्यालयों में अच्छी तरह पाई जाती है।

तक्षशिला का विश्वविद्यालय

पहले युग का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय तक्षशिला नगर में था। यह नगर वर्तमान रावलपिंडी के पास था। सुत और विनय-पिटक आदि प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में इसका कई जगह उल्लेख पाया जाता है। प्राचीनकाल में यह एक अत्यंत विख्यात नगर था। एरियन, स्ट्रावो, प्लीनी आदि प्राचीन लेखकों ने इस नगर की विशालता और वैभव-संपन्नता की प्रशंसा जी खोलकर की है। अशोक के राजत्वकाल में उसका प्रतिनिधि यहाँ रहता था। बौद्ध ग्रंथों से पता लगता है कि यह अपने समय में विद्या-संबंधी चर्चा और पठन-पाठन का केंद्र था। वह विश्वविद्यालय बुद्ध के पहले ही स्थापित हो चुका था। इसमें वेद, वेदांग, उपांग आदि के सिवाय आयुर्वेद, मूर्तिकारी, गृह-निर्माण-विद्या आदि भी पढ़ाई जाती थी।

विज्ञान, कला-कौशल और दस्तकारी के सब मिलाकर कोई अट्ठारह विषय पढ़ाए जाते थे। इसमें से प्रत्येक विषय के लिए अलग-अलग विद्यालय बने हुये थे । और भिन्न-भिन्न विषयों को भिन्न अध्यापक पढ़ाते थे। जगद् विख्यात संस्कृत वैयाकरण पाणिनि और राजनीतिज्ञ शिरोमणि चाणक्य ने इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई थी। आत्रेय यहाँ वैद्यक शास्त्र के अध्यापक थे। मगध नरेश बिम्बसार के दरबारी, चिकित्सक और महात्मा बुद्ध के प्रिय मित्र तथा मतानुयायी वैद्यराज जीवक ने तक्षशिला ही के अध्यापकों से चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन किया था। विनयपिटक में महावग्ग नामक एक प्रकरण है जिससे प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली का अच्छा पता लगता है। कई वर्ष अध्ययन करने के बाद एक शिष्य अपने उपाध्याय से पूछा कि शिक्षा समाप्त होने में कितने दिन बाकी हैं? उपाध्याय ने उत्तर में कहा कि तक्षशिला के चारों तरफ एक योजन भूमि में जड़ी-बूटियों के सिवा जितने व्यर्थ पौधे मिलें उन सबको जमा करो। बेचारे विद्यार्थी ने नियत स्थान के प्रत्येक पौधे की परीक्षा की, परंतु उसे कोई भी व्यर्थ पौधा न मिला। शिक्षक महाशय ने अपने परिश्रमी विद्यार्थी की खोज का हाल सुना तो बड़े प्रसन्न हुए। उससे बोले कि तुम्हारी शिक्षा समाप्त हो गई, अब तुम घर जाओ।

तक्षशिला वैदिक धर्मावलंबियों को विद्या का केंद्र स्थान था। पर बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर वहाँ बौद्ध लोग भी पढ़ने-पढ़ाने लगे थे। यहाँ से कई बौद्ध विद्यार्थी ऐसे निकले जो समय पाकर खूब विख्यात हुए बौद्ध धर्म के सौतांत्रिक संप्रदाय के संस्थापक कुमारलब्ध भी इन्हीं में थे इनके विषय में हुएनसांग लिखते हैं- "सारे भारत के लोग उनसे मिलने आते थे। वे नित्य बत्तीस हजार शब्द बोलते और बत्तीस हजार अक्षर लिखते थे। उस समय पूर्व में अश्वघोष, दक्षिण में देव, पश्चिम में नागार्जुन और उत्तर में कुमारलब्ध अत्यंत प्रसिद्ध विद्वान थे। ये चारों पंडित संसार को प्रकाशित करने वाले चार सूर्य कहलाते थे।"

जिस समय तक्षशिला में वैदिक धर्मावलंबियों की प्रबलता थी उस समय तीन बातें ऐसी थीं जिनको यहाँ पर लिख देना हम उचित समझते हैं। एक तो यह कि उस समय की शिक्षा प्रणाली नियमबद्ध विश्वविद्यालय की जैसी न थी, परन्तु ऐसी थी जैसी कि वर्तमानकाल में बनारस की है। पर बौद्ध विहारों की पढ़ाई इससे ठीक उल्टी थी। यहाँ की शिक्षा प्रणाली वैसी ही थी जैसी की नियमबद्ध विश्वविद्यालयों की होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि बौद्ध विहारों की तरह यहाँ पर केवल सन्यासियों को हो शिक्षा नहीं दी जाती थी, किंतु गुरु और शिष्य दोनों ही गृहस्थ होते थे। यह बात जातक की एक कहानी से और भी स्पष्ट हो जाती है। एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र से पूछा कि तुम कैसा जीवन बिताना चाहते हो? यदि तुम ब्राह्मण राज्य में प्रवेश करना चाहते हो तो तक्षशिला जाकर किसी विख्यात पंडित से विद्याध्ययन करो। जिससे सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन बिता सको। पुत्र ने उत्तर दिया- "मैं वानप्रस्थ बनना नहीं चाहता, मेरी इच्छा गृहस्थ बनने की है।" तक्षशिला के वैदिक विद्यालयों में ध्यान देने योग्य तीसरी बात यह थी कि उनमें केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय बालक ही भर्ती किए जाते थे।

नालंदा का विश्वविद्यालय

बौद्ध-काल के दूसरे युग में सबसे बड़ा विश्वविद्यालय नालंदा में था। यह स्थान मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह से सात मील उत्तर की ओर और पटना से चौंतीस मील दक्षिण की ओर था। आजकल इस जगह पर 'बार गाँव' नामक ग्राम बसा हुआ है, जो गया जिले के अंतर्गत है। नालंदा को प्राचीन इमारतों के खंडहर यहाँ अभी तक पाये जाते हैं। सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग ने नालंदा की शान व शौकत का बड़ा ही मनोहर वृत्तांत लिखा है। चीन ही में इसने नालंदा का हाल सुना था, तभी से इसे देखने के लिए वह ललचा रहा था। इधर-उधर घूमते-घामते जब वह गया पहुॅंचा तब विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उसे नालंदा में आने के लिए निमंत्रण दिया। इससे उसने अपने को धन्य समझा। नालंदा में पहुँचते ही उसके दिल पर ऐसा असर पड़ा कि वह तुरन्त विद्यार्थियों में शामिल हो गया।

नालंदा की बाहरी टीमटाम

विद्या लोलुप चीनी सन्यासी नालंदा की भव्यता और पवित्रता देखकर लट्टू हो गया। ऊँचे-ऊॅंचे बिहार और मठ चारों ओर खड़े थे। बीच-बीच में सभागृह और विद्यालय बने हुए थे। वे सब समाधियों, मंदिरों और स्तूपों से घिरे हुए थे। उनके चारों तरफ बौद्ध भिक्षुकों और प्रचारकों के रहने के लिए चौ-मंजिला इमारतें बनी हुई थीं। उनके सिवा ऊँची-ऊँची मीनारों और विशाल भवनों की शोभा देखने ही योग्य थी। इन भवनों में नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। रंग-बिरंगे दरवाजों, कड़ियों, छतों और खंभों की सजावट को देखकर लोग लोट-पोट हो जाते। विद्या मंदिरों के शिखर आकाश से बातें करते थे और हुएनसांग के कथनानुसार उनकी खिड़कियों से वायु और मेघ के जन्म स्थान दिखाई देते थे। मीठे और स्वच्छ जल की धारा चारों ओर बहा करती थी और सुंदर खिले हुए कमल उनकी शोभा बढ़ाया करते थे।

नालंदा का आंतरिक जीवन

विशालता, नियम-बद्धता और सुप्रबंध के विचार से नालंदा का विश्वविद्यालय वर्तमान काशी की अपेक्षा आक्सफोर्ड से अधिक मिलता-जुलता था। विश्वविद्यालय के विहारों में कोई दस हजार भिक्षु विद्यार्थी और डेढ़ हजार अध्यापक रहते थे। केवल दर्शन और धर्मशास्त्र के ही सौ अध्यापक थे। इससे संबंध रखने वाला पुस्तकालय नव-मंजिला था जिसकी ऊँचाई करीब तीन सौ फुट थी। उसे महाराजा बालादित्य ने बनवाया था। इसमें बौद्ध धर्मं संबंधी सभी ग्रंथ थे। प्राचीनकाल में इतना बड़ा पुस्तकालय शायद ही कहीं रहा हो।

दुनिया में आज-कल जितने विश्वविद्यालय हैं सबमें विद्यार्थियों से फीस ली जाती है, पर नालंदा के विश्वविद्यालय की दशा इससे ठीक उलटी थी। केवल यही नहीं कि विद्यार्थियों से कुछ न लिया जाता था अपितु उन्हें प्रत्येक आवश्यक वस्तु मुफ्त दी जाती थी। अर्थात् भोजन, वस्त्र, औषधि, निवास स्थान आदि सब कुछ सेंत-मेंत मिलता था। यह प्रथा हिन्दुस्तान में बहुत ही प्राचीनकाल से चली आई है। गृहस्थ लोग गाँव, खेत, बाग, वस्त्र अथवा नकद रुपया इन विद्यालयों को दान करते थे। इसी से उनका संपूर्ण खर्च चलता था। इस प्रकार विद्यार्थियों का बहुत समय और मानसिक शक्ति पेट-पूजा के लिए धनोपार्जन करने में नष्ट होने से बच जाती थी और वे इस समय और शक्ति को विद्याध्ययन में लगाते थे। इसका फल यह होता था कि गंभीर विचार वाले, मननशील विद्वान इन विद्यालयों से निकलते थे। इसी से वे लोग बौद्धधर्म, संस्कृति और संसार का अनंत उपकार कर गए हैं।

नालंदा के विश्वविद्यालय में आजकल की सी परीक्षाएं न होती थी, किंतु विद्यार्थियों की योग्यता शास्त्रार्थ द्वारा जाॅंची जाती थी। विद्यालय में भर्ती होने के नियम भी बड़े कड़े थे। जो लोग दाखिल होने के लिए बातें थे, उनसे द्वार-पंडित कुछ कठिन प्रश्न करता था, यदि वे उनका उत्तर दे सकते थे तो भीतर जाने पाते थे, नहीं तो लौट जाते थे। इसके बाद शास्त्रार्थ के द्वारा उनकी योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। जो इसमें भी अपनी योग्यता प्रमाणित कर सकते थे वही विश्वविद्यालय में दाखिल हो सकते थे। बाकी अपना-सा मुॅंह लेकर अपना रास्ता लेते थे। मतलब यह कि अच्छे, बुद्धिमान, विद्वान, योग्य और गुणवान् मनुष्य ही विद्यालय में प्रवेश करते थे।

द्वार-पंडित के पद पर वही नियत किया जाता था जो ऊॅंचे दर्जे का विद्वान होता था। यह पद उस समय बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था। विश्वविद्यालय के सभागृह में सबेरे से शाम तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दूर-दूर देशों से पंडित अपनी शंकाएँ दूर करने के लिए वहाँ आते थे। नालंदा के विद्याथियों का देश भर में आदर, सत्कार सम्मान होता था। जहाँ वे लोग जाते थे, वहीं उनकी इज्जत होती थी। यों तो नालंदा विश्वविद्यालय के प्रायः सभी अध्यापक उत्कृष्ट, विद्वान थे। पर उनमें नव मुख्य थे। हुएनसांग ने उनकी सीमा रहित विद्वता, योग्यता, देशव्यापी ख्याति, अद्भुत प्रतिभाशीलता की खूब प्रशंसा की है। उन नव अध्यापकों के नाम ये हैं— धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, ज्ञानचंद्र, श्री बुद्धि और शीलभद्र। हुएनसांग के समय में विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे। बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के जगद्विख्यात संस्थापक नागार्जुन का संबंध भी किसी समय नालंदा विश्वविद्यालय से था।

नालंदा के प्रायः सभी अध्यापक और विद्यार्थी धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। असल में धार्मिक जीवन बिताने के लिए ही, इसकी सृष्टि हुई थी इसीलिए इसका नाम 'धर्मगंज' पड़ा था। परंतु पीछे इसकी काया पलट गई थी। दर्शन और धर्म शास्त्र के साथ-साथ व्याकरण, वैद्यक आदि व्यावहारिक और सांसारिक विद्याएँ भी पढ़ाई जाने लगी थीं। तमाम हिंदुस्तान के विद्यार्थी इन विद्याओं को पढ़ने के लिए यहाँ आते थे।

श्री धन्यकटक का विश्वविद्यालय

इस युग का दूसरा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय श्री धन्यकटक था। यह स्थान दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के किनारे वर्तमान अमरावती के स्तूपों के निकट था।

बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के चौदहवें धर्मगुरु विख्यात रसायन शास्त्रवेत्ता और चिकित्सक नागार्जुन के समय में यह खूब उन्नत दशा में था और देश-देशांतरों में प्रसिद्ध हो गया था। चीनी यात्री इत्सिंग के कथनानुसार नागार्जुन महाशय ईसा की चौथी शताब्दी में थे। वहाँ पर वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के ग्रंथ पढ़ाये जाते थे। तिब्बत की राजधानी ल्हासा के निकट डाग विश्वविद्यालय इसी के नमूने पर बनाया गया था। पठन- पाठन विधि वहाँ भी वैसी थी जैसी कि नालंदा में।

ओदंतपुरी विक्रमशिला के विश्वविद्यालय

यह हम लिख चुके हैं कि बौद्धकाल का तीसरा युग सातवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। इस समय के बौद्ध महंतों में पहले का जैसा धार्मिक उत्साह बाकी न था। परंतु वैज्ञानिक खोज करने का जोश खूब बढ़ गया था। वैद्यक और रसायन शास्त्र में उन लोगों ने अच्छी उन्नति की थी। इस तांत्रिक बौद्ध धर्म का प्रचार बंगाल और बिहार में बहुत था। उन दिनों मगध में पालवंश के राजा राज्य करते थे। इन्हीं के समय में बौद्ध उपदेशकों ने तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसमें दो मुख्य विश्वविद्यालय थे, एक ओदंतपुरी में, दूसरा विक्रमशिला में। ये दोनों स्थान बिहार प्रांत में हैं। मगध में पालवंश का राज्य होने के बहुत दिन पहले ओदंतपुरी में बड़ा भारी बिहार बनाया गया था। इसी बिहार के नाम पर कुल प्रांत का नाम बिहार पड़ गया और मगध नाम लुप्त हो गया। महाराज महिपाल के पुत्र महापाल के समय में ओदंतपुरी विश्वविद्यालय में बौद्धधर्म के हीनयान संप्रदाय के एक हजार और महायान संप्रदाय के पाँच हजार महंत रहते थे। पालवंश के राजाओं ने ओदंतपुर, विश्वविद्यालय में एक बड़ा भारी पुस्तकालय स्थापित किया था। उसमें वैदिक और बौद्ध दोनों प्रकार के हजारों ग्रंथ थे। श्री धन्यकटक विश्वविद्यालय की तरह ओदंतपुरी के नमूने पर भी तिब्बत में शाक्य नामक एक विश्वविद्यालय खोला गया था।

पाल राजा बड़े ही विद्या रसिक और विद्वानों के संरक्षक थे। उनका संबंध एक और विश्वविद्यालय से भी था। उसका नाम था विक्रमशिला। यह विद्यालय भागलपुर जिले के अंतर्गत सुल्तानगंज गाँव के निकट गंगा के दाहिने किनारे पर एक पहाड़ी की चोटी पर था। सब मिलाकर कोई एक सौ आठ भवन थे। इस विश्वविद्यालय के अधीन छः महाविद्यालय थे, जिनमें एक सौ आठ पंडित पढ़ाते थे। इन सब पंडितों तथा अन्य विद्वानों का खर्च पूर्वोक्त महाराज के दिए हुए गाँवों की आमदनी से चलता था। बीच का भवन विधान मंदिर के नाम से विख्यात था। उसमें बिहार के महंत उन पंडितों से बौद्ध ग्रंथ पढ़ते थे जो विश्वविद्यालय के प्रथम और द्वितीय स्तंभ कहलाते थे। राजा जयपाल के शासनकाल में विश्वविद्यालय की देख-भाल के लिए छ: द्वार-पंडित नियत थे। इसी समय महात्मा जेतारि ने एक सत्र स्थापित किया था, उसमें विक्रमशिला के विद्याथियों को मुफ्त भोजन मिलता था। विद्यालय के स्थाई विद्यार्थियों को भोजन देने के लिए चार सब पहले ही से थे। इसके सिवा वारेन्द्र के अधीश महाराज सनातन ने दसवीं शताब्दी के आदि में एक सत्र और भी खोला था। विश्वविद्यालय के प्रबंध के लिए छ: विद्वानों की एक सभा थी। जिसका सभापति सदा राज पुरोहित होता था। महाराज धर्मपाल के समय में अध्यक्ष के पद पर श्री बुद्धज्ञान पादाचार्य नियुक्त थे। ग्यारहवीं शताब्दी में इस पद पर श्रीयुत दीपंकर नियत थे। अपने समय के ये बड़े विद्वान थे। इनकी विद्वता की प्रशंसा सुनकर तिब्बत वालों ने इन्हें अपने यहाँ बुलवाया था। इस विश्वविद्यालय से पढ़कर जो विद्यार्थी निकलते थे उनको पंडित की पदवी दी जाती थी। अपने समय के सबसे बड़े नैयायिक पंडित जेतगी ने इसी विश्वविद्यालय से पंडित की पदवी और राजा महापाल का हस्ताक्षरित प्रमाण पत्र पाया था। महाराज उनकी गहरी विद्वता इतने प्रसन्न हुए थे कि उन्होंने उनको द्वार पंडित के प्रतिष्ठित पद नियत किया था। बाद में काश्मीर-निवासी रत्नवज्ज नामक एक प्रसिद्ध विद्वान ने भी यहाॅं से पंडित की पदवी और राजा चाणक्य का हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र पाया था। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, अभिधर्म, दर्शन शास्त्र विज्ञान, वैद्यक आदि कई विषय पढ़ाये जाते थे । तिब्बत के लाभ विक्रमशिला में आते थे और वहाँ के पंडितों की सहायता से संस्कृत का अनुवाद तिब्बती भाषा में करते थे।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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