हिन्दी एकांकी के विकास का इतिहास || Hindi Ekanki Ke vikas ka Itihas
एकांकी एक अंक का दृश्य-काव्य है जिसमें एक कथा तथा एक उद्देश्य को कुछ पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- "एकांकी में एक ऐसी घटना रहती है, जिसका जिज्ञासा पूर्ण एवं कौतूहलमय नाटकीय शैली में चरम विकास होकर अन्त होता है।" एकांकी का प्राण तत्व है 'संघर्ष' संघर्ष से ही नाटकीयता का सृजन होता है। हिन्दी एकांकी को नाटक से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। सन् 1935 में भुवनेश्वर स्वरूप के 'कारवाँ' द्वारा एकांकी का रूप स्पष्ट हो गया। हिन्दी एकांकी के विकास क्रम को विद्वानों ने अनेक प्रकार से विभाजित किया है परन्तु सर्वमान्य रूप से इसके क्रमिक विकास को चार भागों में विभक्त किया गया है–
1. भारतेन्दु - द्विवेदी युग – (1875 से 1928 ई.)
2. प्रसाद युग – (1929 से 1937 ई.)
3. प्रसादोत्तर युग – (1938 से 1947 ई.)
4. स्वातंत्र्योत्तर युग – (1948 से अब तक)
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4. काव्य के प्रकार
5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य
1. भारतेन्दु - द्विवेदी युग – (1875 से 1928 ई.) प्रथम चरण – इस युग में भारतेन्दु प्रमुख एकांकीकार के रूप में स्वीकार किए गए। सर्वाधिक एकांकी भारतेन्दु ने प्रस्तुत किए है। इस युग के एकांकीकारों ने प्रचलित परंपराओं, कुप्रथाओं और सामाजिक समस्याओं को आधार बनाकर एकांकी लिखे इस युग के प्रमुख एकांकीकार हैं- काशीनाथ खत्री, बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, राधाचरण गोस्वामी, अंबिका दत्त व्यास, प्रताप नारायण मिश्र, किशोरी लाल गोस्वामी, देवकी नंदन खत्री, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' आदि।
2. प्रसाद युग – (1929 से 1937 ई.) द्वितीय चरण – इस युग के एकांकी प्रसाद के 'एक घंट' से प्रारंभ होते हैं। इस युग में पाश्चात्य शैली का अनुकरण किया गया। समाज की तत्कालीन अवस्था का चित्रण इस युग के एकांकियों में मिलता है। प्रसाद जी द्वारा रचित एकांकी 'सज्जन', 'कल्याणी', 'परिणय' 'प्रायश्चित' आदि हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा के प्रथम एकांकी का प्रकाशन 1930 में हुआ। बदरीनारायण भट्ट, सुदर्शन, राधेश्याम मिश्र, एवं जी.पी. श्रीवास्तव आदि इस युग के प्रमुख एकांकीकार हैं।
3. प्रसादोत्तर युग– (1938 से 1947 ई.) तृतीय चरण - इस समय एकांकी अपने यथार्थ रूप में सामने आई। युद्ध की विभीषिका तथा बंगाल के अकाल ने एकांकीकारों को झकझोर दिया था। एकांकी में संकलन त्रय को भी महत्वपूर्ण माना जाने लगा था। इस युग के प्रमुख एकांकीकार इस प्रकार हैं- सेठ गोविंददास, उदयशंकर भट्ट, जगदीश चंद्र माधुर, हरिकृष्ण प्रेमी, लक्ष्मी नारायण मिश्र, भगवती चरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, डॉ. रामकुमार वर्मा, मोहन राकेश, वृंदावन लाल वर्मा आदि।
4. स्वातंत्र्योत्तर युग – (1948 से अब तक) चतुर्थ चरण – इस युग के एकांकीकारों का दृष्टिकोण प्रगतिवादी था। पूंजीवाद के विरोध के स्वर मुखर होने लगे थे। इस काल में एकांकियों को राजकीय प्रोत्साहन मिला। संगीत नाटक एकेडेमी सन् 1958 में दिल्ली में स्थापित हुई। 'तरंग', 'रंगयोग', 'बिहार थियेटर' 'रंग भारती' आदि 'नाट्य कला' से संबंधित कई पत्रिकाओं के प्रकाशन द्वारा एकांकी को बल मिला। मोहन राकेश का नाम इस काल के एकांकीकारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हिन्दी एकांकी आज अपने यौवन पर है।
एकांकी के तत्व
1 कथावस्तु
2. कथोपकथन या संवाद
3. पात्र एवं चरित्र चित्रण
4. देश काल वातावरण (संकलन-त्रय)
5. भाषा शैली
6. उद्देश्य
7. अभिनेयता
प्रमुख एकांकीकार एवं उनकी एकांकियाँ–
1. राधाचरण गोस्वामी – भारत-माता, अमरसिंह राठौर।
2. जयशंकर प्रसाद – एक घूँट।
3. सेठ गोविन्ददास – सप्त रश्मि, अष्टदल, नवरंग।
4. हरिकृष्ण प्रेमी – मातृ मन्दिर, राष्ट्र मन्दिर, न्याय मन्दिर।
5. डॉ. रामकुमार वर्मा – पृथ्वीराज की आँखें, दीपदान, रेशमी टाई।
6. धर्मवीर भारती – नदी प्यासी थी, नीली झील।
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