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उपन्यास का अर्थ एवं परिभाषा - उपन्यास के तत्व एवं प्रकार, उपन्यास का इतिहास एवं प्रमुख उपन्यासकार || Hindi Novels

उपन्यास क्या है इसका अर्थ

"उपन्यस्येत इति उपन्यास:" उपन्यास शब्द का अर्थ है सामने रखना "उपन्यास प्रसादनम्" उपन्यास का अर्थ है किसी वस्तु को इस प्रकार से संजोकर रखना जिससे दूसरे उसे देखकर प्रसन्न हों, किन्तु आज का उपन्यास अंग्रेजी के नॉवेल (Novel) शब्द का पर्यायवाची बन गया है। संस्कृत में उपन्यास के लिए नॉवेल शब्द का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः उपन्यास नित्य नवीन एवं रमणीय शैली में वस्तु का अभिनव स्वरूप प्रस्तुत हृदय-कलिका को रसप्लावित करता है।

डॉ. भागीरथ मिश्र के अनुसार उपन्यास है - "युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली में स्वाभाविक जीवन की एक पूर्ण झाँकी प्रस्तुत करने वाला गद्य काव्य उपन्यास कहलाता है।"

आधुनिक युग में उपन्यास एक सर्वाधिक प्रचलित विधा है, यह आधुनिक युग का महाकाव्य बन गया है। जिसमें जीवन की संपूर्ण झाँकी सरस रुप में प्रस्तुत की जाती है।

उपन्यास के तत्व

1. कथावस्तु या घटनाक्रम
2. पात्र या चरित्र-चित्रण
3. कथोपकथन
4. शैली
5. देशकाल या वातावरण
6. उद्देश्य

1. कथावस्तु या घटनाक्रम

उपन्यास की मूल कहानी को 'कथावस्तु' कहते हैं। प्रासांगिक कथाएँ इस मूल कहानी को सुरुचिपूर्ण बनाकर उद्देश्य की ओर ले जाती है। कुछ प्रयोगवादी उपन्यासकार घटनाक्रम का समायोजन अस्वाभाविक मानते हैं। उनके अनुसार जीवन की स्वाभाविकता का चित्रण उपन्यास में साकार होना चाहिए। जीवन की घटनाओं का कोई क्रम नहीं होता, इसी प्रकार उपन्यास में संघटित घटनाओं का भी क्रमबद्ध होना आवश्यक नहीं है।

कथानक अनेक प्रकार के हो सकते हैं - जैसे पौराणिक, सामाजिक, आंचलिक, तिलस्मी आदि। कथानक किसी भी प्रकार का हो, उसे रोचक औत्सुक्यपूर्ण तथा मनोरंजक होना आवश्यक है। आज नवजागरण काल में उपन्यास का कथानक जीवन से संबद्ध होना चाहिए तथा जीवन की वास्तविकता प्रकट करने वाली अनुभूतियों से संयुक्त यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

2. पात्र या चरित्र-चित्रण

उपन्यास मानव जीवन से संबद्ध होता है, अतः इसे मानव चरित्र का चित्र कहा जाता है। इसमें मानव चरित्र के विविध रूप प्रस्तुत किए जाते हैं। उसके विकास-ह्रास, उतार-चढ़ाव, अच्छाई-बुराई सभी का विवरण चित्रवत् प्रस्तुत किया जाता है। इसमें मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य चरित्र का पूर्ण उद्घाटन हो जाता है। इसमें युगीन प्रवृत्ति के अनुसार आदर्शवादी चरित्रोद्घाटन को महत्व देकर जीवन की यथार्थता के आधार पर सामान्य चरित्रों का उद्घाटन होने लगा है। यही स्वाभाविक भी है। इसके लिए लेखक को पात्र, घटना और परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है।

3. कथोपकथन

कथोपकथन से कथानक को गतिशीलता मिलती है तथा चरित्र चित्रण में भी सहायता मिलती है। अतः कथोपकथन कथन और पात्र दोनों से संबद्ध रहते हैं । अतः यह आवश्यक है कि कथोपकथन की भाषा सरल, चुटीली एवं प्रवाहमयी हो। पात्रानुकूल भाषा उपन्यास की सर्वोपरि महत्वपूर्ण विशेषता है। उपन्यास ऐसी भाषा में लिखा जाय जिससे पाठक को भाव-बोध में सुगमता रहे। अधिक अवगुंठित वाक्यावली उपन्यास को दुरूह बनाती है एवं उसमें जिज्ञासावृत्ति शान्त हो जाने के कारण नीरसता का सृजन कर देती है।

4. शैली

कथावस्तु का रोचक एवं प्रभावोत्पादक होना ही आवश्यक नहीं है वरन् आवश्यक यह भी है कि लेखक उसे किस ढंग से प्रस्तुत करता है। लेखक बिखरी हुई कथावस्तु को समायोजित कर सरल एवं सरस भाषा में प्रसादमयी समन्वित पदावली में गुम्फित कर वातावरण के अनुकूल गुणों का समावेश करा प्रस्तुत करता है। तभी कथावस्तु मर्मस्पर्शी एवं हृदयग्राह्मी बन पाती है।

उपन्यास लिखने के लिए चार प्रकार की शैलियों को उत्तम माना जाता है -
(१) कथाशैली - श्री प्रेमचंद का "रंगभूमि" उपन्यास कथाशैली में लिखा गया है।
(२) आत्मकथा शैली - इसमें लेखक स्वयं या पात्र द्वारा स्वयं का जीवनदृश्य प्रस्तुत करवाता है। इलाचंद्र जी का “घृणामंत्री" इसका उदाहरण है ।
(३) पत्र शैली - पत्र की ही तरह कथावस्तु को प्रस्तुत किया जाता है। पंडित बेचन शर्मा 'उग्र' का "चंद हसीनों के ख़तून" इसी श्रेणी का उपन्यास है।
(४) डायरी शैली - इसमें स्वयं या पात्रों द्वारा डायरी की पूर्ति कराते हुए लेखक प्रतीत होता है और दिन-प्रतिदिन कथावस्तु को आगे बढ़ाता है "शोषित तर्पण" उपन्यास डायरी शैली का एक अच्छा उदाहरण है।

5. देशकाल और परिस्थिति (वातावरण)

देशकाल और परिस्थिति का समुचित समन्वय हो पात्रों के चरित्र को स्वाभाविक बनाकर उन्हें पूर्णता की ओर ले जाता है, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः वह वातावरण की सीमा में ही रह पाता है। उसके व्यक्तित्व का विकास वातावरण के अनुकूल ही होता है। समय परिवर्तनशील है। समय के साथ-साथ परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं और तद्नुसार खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज सभी कुछ बदलता रहता है। इसलिए पात्रों के चरित्र में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है और इस परिवर्तन के अनुरूप हो चरित्र का विकास होना चाहिए।

उपन्यास में वातावरण का निर्माण भी आवश्यक समझा जाता है। इसमें प्राकृतिक परिवेश का विशेष योगदान रहता है। लेखक प्राकृतिक उपकरणों के प्रतीकात्मक प्रयोग द्वारा बहुत कुछ व्यंजित कर देता है। उदाहरण के लिए बुरे दिनों के प्रतीक स्वरूप डूबता हुआ सूर्य बताना अथवा पति की मृत्यु को दर्शाने के लिए चूड़ियाँ फुड़वा देना, भय संचरण हेतु घने जंगल में प्रवेश तथा जंगली पशुओं का दर्शन-गर्जन और काली घटाओं के साथ घन-गर्जन।

उपन्यासों के प्रकार

[अ] तत्वों के आधार पर उपन्यास -
उपन्यास के तत्वों के आधार पर तीन भेद माने जाते हैं -
(१) घटना प्रधान
(२) चरित्र प्रधान और
(३) नाटकीय।

[आ] वर्ण्य विषय के आधारित उपन्यास -
वर्ण्य विषय के आधार पर उपन्यास निम्न प्रकार के होते हैं -
(१) धार्मिक
(२) सामाजिक
(३) आर्थिक
(४) ऐतिहासिक या आंचलिक आदि।
कुछ समीक्षक उपन्यासों की वास्तविकता प्रधान और कल्पना प्रधान दो भागों में ही रखना समीचीन मानते हैं। प्रत्येक विभेद का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत करना उस स्तर के छात्रों के लिए आवश्यक नहीं है, क्योंकि नाम के अनुसार ही उनकी सामान्य विशिष्टियाँ दर्शाई जा सकती हैं।

[इ] आधुनिक युगीन उपन्यास -
आधुनिक युग में निम्नलिखित उपन्यास लिखे गये हैं -
1- भावुकतापूर्ण कल्पना प्रधान
2- आदर्शोन्मुख-यथार्थवादी
3- सुधारवादी जीवन दृष्टिकोण युग प्रस्तुत करने वाले।

उपन्यास का इतिहास

उपन्यास आधुनिक युग की देन है। हर श्रेणी का पाठक उपन्यास पढ़ता हुआ मिलेगा। अतः यह एक साहित्य की अत्यधिक महत्वपूर्ण कथा विधा है। प्राचीन साहित्य में भी इसके कुछ रूप, अंश प्राप्त होते हैं जो तत्कालीन कथा और आख्यायिकाओं से सन्निहित हैं। इसके पश्चात कुछ अनुवाद कार्य भी हुए, जैसे "बेताल पचीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "हर्ष चरित्र" तथा "कादम्बरी" इत्यादि। इंशा अल्ला खाँ की "रानी केतकी को कहानी" भी इसी विधा का रूप है।

उपन्यास विधा का आधुनिक रूप में श्रीगणेश भारतेंदु युग से ही मानना उचित है। इस युग के कथाकार लाला श्रीनिवास दास ही प्रथम उपन्यासकार थे। उन्होंने सामान्य जन के चरित का सामान्य भाषा में, सामान्य चरित्र चित्रण प्रस्तुत किया। इसी समय ठाकुर जगमोहनसिंह ने "श्यामा स्वप्न" लिखा। बालकृष्ण भट 1877 में "नूतन ब्रह्मचारी" का प्रकाशन किया और उसके बाद "सौ सुजान एक अजान" लिखा। अन्य लेखकों में राधाकृष्णदास का "निःसहाय हिन्दू", अयोध्यासिंह उपाध्याय का "ठेठ हिन्दी का ठाठ" तथा "खिला फूल" प्रमुख हैं। प्रताप नारायण मिश्र, अंबिकादत्त मिश्र, लज्जाराम शर्मा तथा कार्तिक प्रसाद खत्री का भी योगदान रहा।

उपन्यास के क्षेत्र में 1877 में देवकी नंदन खत्री ने "चंद्रकांता" तिलिस्मी उपन्यास लेकर पदार्पण किया और उन्होंने "चन्द्रकान्ता संतति" तथा "भूतनाथ" कृतियाँ भी उसी भावभूमि पर प्रस्तुत की। इससे तिलिस्म एवं ऐयारी की अभूतपूर्व सामग्री प्राप्त कर जनमन उद्वेलित हो उठा। यहाँ तक की उपन्यास पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा का ज्ञान अर्जित किया। पाठकों में कौतुकपूर्ण अद्भुत कथाओं को पढ़ने की होड़-सी लग गई। खत्री जी ने "शैतान", "नरेन्द्र मोहनी”, "कुसुम कुमारी", "वीरेन्द्र वीर" और "काजल की कोठरी" उपन्यास भी लिखे।

इसी युग में गोपालराम गहमरी ने जासूसी उपन्यास साहित्य के सृजन का सूत्रपात किया। उनके उपन्यास हैं- "मानुमति", "घटना घटाटोप", "खूनी कौन है", "जमुना का खून", "जासूस की भूल", "देवरानी जिठानी", "अन्धे की आँख" आदि। किशोरी लाल गोस्वामी ने 65 उपन्यास लिखे उनके कुछ उपन्यास हैं - "प्रेंममयी", "तारा", "चपला", "इन्दुमति", "रजिया बेगम", "लवंगलता", "लखनइ कब्र", "मस्तानी" आदि।

इस युग में अधिकांश उपन्यास भावुकता से परिपूर्ण कल्पना लोक के चमत्कारिक कारनामें प्रस्तुत करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण कार्य जन-मन रंजन के साथ भाषा अध्ययन को अनिवार्यता का मान मानव समाज को हुआ। यह बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण लोकलाभ था। सामाजिकता और ऐतिहासिकता के शिक्षाप्रद समन्वय रुचि परिष्कार किया एवं जनमानस को उपन्यासों के प्रति आकृष्ट किया।

आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उपन्यासों का सूत्रपात उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेंमचन्द की सबल लेखनी द्वारा किया गया। उन्होंने इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए और 1880 से 1936 तक अपराजित नेतृत्व करते रहे। उनका "प्रेमाश्रम" 1922 में छपा। इससे पूर्व 1907 में ही उनका उपन्यास "उर्दू की निधि" छप चुका था। उनके अन्य उपन्यास हैं - "सेवासदन", "रंगभूमि", "कर्मभूमि", "कायाकल्प निर्मला", "प्रतिज्ञा", "पवन"," गोदान", "प्रेंमा और मंगलसूत्र"।

प्रथमतः प्रेंमचन्द जी गाँधीवादी विचारधारा के पोषक थे, किन्तु उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें अधिकांश यथार्थवादी धरातल पर सामाजिक पृष्ठभूमि को ही प्रस्तुत किया। वस्तुतः वह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कथाकार थे। उनका साहित्य यथार्थोन्मुख आदर्शवादी साहित्य है। उन्होंने घर परिवार और समाज की समस्याओं, उलझनों, पाखण्डों और झूठी मर्यादाओं का मार्मिक विश्लेषण स्वाभाविक रीति से सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।

इस युग के दूसरे उपन्यासकार थे, जयशंकर प्रसाद उन्होंने "कंकाल", "तितली" और "इरावती" नाम के तीन ही उपन्यास लिखे। उनके उपन्यास घटना प्रधान यथार्थवादी हैं।

इस युग के कुछ अन्य उपन्यासकार विश्वंभरनाथ शर्मा "कौशिक", जी. बी. श्रीवास्तव (हास्य उपन्यासकार), आचार्य चतुरसेन शास्त्री, बदरीनाथ भट्ट, "सुदर्शन", सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला", वृन्दावन लाल वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, भगवती प्रसाद वाजपेयी, प्रताप नारायण श्रीवास्तव इत्यादि।

इन लेखकों की कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं।
(क) श्री जी. पी. श्रीवास्तव - "लतखोरी लाल", "उलटफेर", "दुमदार आदमी", "भइया आकिल बहादुर", "मारमार कर", "मरदानी औरत", "विलायती उल्लू", "साहब बहादुर"।
(ख) चतुरसेन शास्त्री - "हृदय की प्यास", "पूर्णाहुति", "वैशाली की नगर वधू", "गोली", "सोमनाथ", "वयंरक्षामः", "सोना और खून"।
(ग) निराला - "अप्सरा अलका", "चोटी की पकड़", "निरूपमा", "प्रभावती" आदि।
(घ) राहुल सांकृत्यायन - "जय यौधेय" "जो दास थे", "दाखुन्दा", "सिंह सेनापति", "शैतान की आँख" आदि।
(ङ) वृन्दावन लाल वर्मा - "गढ़ कुंडार", "लगन", "कुंडली चक्र", "विराटा की पद्मिनी", "झाँसी की रानी", "टूटे कांटे", "मृगनयनी", "अहिल्याबाई", "माधवजी सिंधिया" और "भुवन विक्रम" आदि।

सुधारवादी जीवनदृष्टि कोण आधुनिक उपन्यासों की एक अन्य विशेषता है। इस काल में उपन्यासों का क्षेत्र विविधतापूर्ण बना। इस समय मनोविज्ञान आंचलिकता, सामाजिकता, समाजवाद और इतिहास के क्षेत्र विकसित ही नहीं हुआ अपितु, इनमे जीवन की विविध झाँकियाँ भी दर्शित हुई हैं। जीवन का कोई भी कोना इससे अछूता नहीं रहा है। कथावस्तु हीन-मानसिक ऊहापोह भाव अवगुंठन को भी विषयवस्तु स्वीकार किया गया और अच्छे उपन्यास लिखे गए। पुरातन को नए परिवेश के अनुकूल बनाकर प्रस्तुत किया गया तथा नए के पुनर्निर्माण की कल्पना भी की गई। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह युग सीमित क्षेत्र में, असीमित सामग्री के साथ छा गया निबंध लेखनी सामान्य से सामान्य और जटिल से जटिल प्रश्नों के उत्तर देने में अविराम योगदान देने में सक्रिय होने लगी।

इस युग में हिन्दी उपन्यास, कथानक, शिल्प, विचार और संदेश सभी दृष्टियों से समृद्ध और उत्कृष्ट हैं। अधिकांश कृतियाँ सामाजिक भावभूमि पर लिखी गई हैं। अनुवाद के क्षेत्र में भी यह युग पीछे नहीं है। वस्तुतः सर्जना की दृष्टि से उपन्यास क्षेत्र सर्वाधिक सक्रिय है।

कुछ क्षेत्र तथा उनके प्रमुख उपन्यासकार

[अ] मनोविज्ञान क्षेत्र के उपन्यासकार एवं उनके उपन्यास -
(क) श्री जैनेन्द्र -
"कल्याणी", "परख", "त्यागपत्र", "सुनीता", "सुखदा", "मुक्तिबोध" आदि।
(ख) श्री इलाचन्द्र जोशी - "कृष्णमयी", "सन्यासी", "पर्दे की रानी", "प्रेत और छाया", "मुक्तिपथ", "सुबह के भूले", "जहाज का पंछी" आदि।
(ग) श्री अज्ञेय - "शेखर : एक जीवनी", "नदी के द्वीप", "अपने-अपने", "अजनबी"।

[आ] आंचलिक क्षेत्र के उपन्यासकार एवं उनके उपन्यास -
(क) फणीश्वर नाथ रेणु -
"मैला आँचल", "परती परकथा", "जुलुस", "दीर्घतल"।
(ख) नागार्जुन - "नई पौध", "दुखमोचन", "रतिनाथ की चाची", "इमरतिया", 'बाबा बटेश्वरनाथ", "वरुण के बेटे"।
(ग) उदय शंकर भट्ट - "सागर लहरें और मनुष्य"।
(घ) अमृतलाल नागर - "शतरंज के मोहरे", "बूँद और समुद्र"।

[इ] सामाजिक चेतना क्षेत्र के उपन्यासकार एवं उनके उपन्यास -
(क) श्री भगवती चरण वर्मा - "चित्रलेखा", "टेढ़े मेढ़े रास्ते", "भूले बिसरे चित्र"।
(ख) उपेन्द्रनाथ अश्क - "गिरती दीवारें", "गर्मराख", "चेतन" आदि।
(ग) नरेश मेहता - "धूमकेतु", "एक श्रुति", "नदी यशस्वी है", "प्रथम फालगुन" आदि।
(घ) अमृतलाल नागर - "सुहाग के नूपुर", "ये कोठेवालिया", "शतरंज के मोहरे", "मानस का राजहंस" आदि।
(ङ) सामाजिक उपन्यास लिखने वाले अन्य लेखक - नागार्जुन, अनंत गोपाल शेवड़े, उषा देवी मित्रा, कृष्ण चंदर, गुरुवस्त भैरवप्रसाद गुप्त, यज्ञदत्त शर्मा, रघुवीरशरण मिश्र, देवराज, लक्ष्मीनारायण लाल, शिवानी शैलेश मटियानी, श्रीलाल शुक्ल, राजेन्द्र यादव आदि।

[ई] समाजवादी क्षेत्र के उपन्यासकार एवं उनके उपन्यास -
(क) यशपाल -
"झूठा सच", "दिव्या", "अमिता", "दादा कामरेड" आदि।
(ख) नागार्जुन - "उग्रतारा", "दुःखमोचन", "इमरतिया", "हीरक जयन्ती" आदि।

[उ] ऐतिहासिक क्षेत्र के उपन्यासकार एवं उनके उपन्यास -
इस क्षेत्र में डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योबदान रहा है। उनके सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक उपन्यासों में मध्य युगीन संस्कृति के विविध चित्र प्राप्त होते हैं।
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास - "बाण भट्ट की आत्मकथा", "पुनर्नर्वा", "अनामदास का पोथा"।
(ख) इकबाल बहादुर देवसरे - "ओरछा की नर्तकी", "सुलताने मालवा", "शाहे अवध" आदि।
(ग) बाल्मीकि त्रिपाठी - "जय-विजय", "जहाँदार शाह", "सत्ता और संघर्ष" आदि।
(घ) ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले अन्य लेखक - उपन्यास के क्षेत्र में अनेक नये लेखक अपनी प्रतिभा संपन्नता का परिचय दे रहे हैं उनमें से कुछ नाम यहाँ दिए जा रहे हैं -
रमेश बक्षी, नरेन्द्र कोहली, निर्मल वर्मा, रामदरश मिश्र, याही मासूम रजा, श्याम सुन्दर व्यास, मालती जोशी आदि।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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