मौर्य साम्राज्य- प्राचीन भारतीय इतिहास | The Maurya Empire of Ancient Indian History
मौर्य साम्राज्य हमारे प्राचीन भारत का गौरव है। मौर्य वंश के महान शासकों ने भारत पर शासन किया है। मौर्य साम्राज्य की जानकारी हमें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होती हैं। मुख्यतः ये स्रोत तीन हैं-
1. साहित्यिक स्त्रोत
ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध साहित्य से मौर्य शासकों के विषय में विस्तार से जानकारी प्राप्त होती है। इन साहित्य ग्रंथों में प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ एवं उनके रचयिता निम्नलिखित हैं-
अर्थशास्त्र- कौटिल्य (चाणक्य)
मुद्राराक्षस- विशाखदत्त
महाभाष्य- पतंजलि
कथासरित्सागर- सोमदेव
बृहत्कथामंजरी- क्षेमेंद्र
इसके अतिरिक्त प्रमुख जैन ग्रंथ एवं उनके रचयिता निम्नलिखित हैं-
कल्पसूत्र- भद्रबाहु
परिशिष्टपर्वन- हेमचंद्र
मौर्य वंश के बारे में जानकारी देने वाले प्रमुख बौद्ध ग्रंथ निम्नलिखित हैं-
महावंश
दीपवंश
महाबोधिवंश
महावंश टीका
दिव्यावदान आदि।
इन सभी ग्रंथों में कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र सबसे महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ से मौर्य प्रशासन के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती हैं एवं इसमें चंद्रगुप्त मौर्य की जीवन चरित्र का विस्तार से वर्णन किया गया है।
2. विदेशी विवरण-
मौर्य शासकों के समय कई विदेशी यात्री भारत आए और उन्होंने यहाँ जो देखा उन्होंने उसे अपनी रचनाओं में लिखा। प्रमुख विदेशी लेखक–
कार्टियस
स्ट्रैबो
प्लिनी
डियोडोरस
जस्टिन
एरियन
प्लूटार्क
ऑनेसिक्रिटस
अरिष्टोब्यूलस
नियार्कस
मेगस्थनीज आदि हैं।
इनमें से मेगस्थनीज महत्वपूर्ण है। वह यूनान के शासक सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था। वह चंद्रगुप्त मौर्य के समय उसके दरबार में आया था। मेगस्थनीज की रचना 'इंडिका' है। इसमें पाटलिपुत्र का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके माध्यम से मौर्य इतिहास के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। कई यूनानी विद्वानों ने चंद्रगुप्त मौर्य को 'सैंड्रोकोट्टस' कहकर संबोधित किया है। सबसे पहले विलियम जोन्स नामक विद्वान ने सेंट्रोकोट्टस की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से की थी।
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3. पुरातात्विक स्रोत-
पुरातात्विक स्रोतों के साथ-साथ पुरातात्विक स्रोतों का भी मौर्य इतिहास जानने में महत्वपूर्ण योगदान है। मौर्य इतिहास जानने के प्रमुख पुरातात्विक स्रोत हैं-
अशोक के अभिलेख
काली पॉलीस वाले में मृद्भांड
जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख (शक महाक्षत्रक रुद्रदामन का अभिलेख)
मुद्रा
आहत मुद्रा (पंचमार्क)
भवन- स्तूप
गुफा आदि हैं।
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण 'अशोक के अभिलेख' हैं। इससे सम्राट अशोक के शासनकाल के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विभिन्न भागों से अशोक के 40 से अधिक अभिलेख मिले हैं।
मौर्य साम्राज्य की नींव-
मौर्य साम्राज्य की नींव लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में आर्यावर्त के मगध का शासन नंद वंश के धनानंद नामक एक अत्याचारी तथा क्रूर शासक के हाथों में था। उसके शासनकाल में प्रजा में अशांति थी। चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (कौटिल्य) की सहायता से धनानंद को पराजित कर दिया और मगध में मौर्य वंश की नींव रखी। उन्होंने 'पाटलिपुत्र' को अपनी राजधानी बनाया। चंद्रगुप्त मौर्य 'मौर्य वंश' के संस्थापक थे। उनकी माता का नाम 'मूर' था। संस्कृत भाषा में इसका शाब्दिक अर्थ 'मौर्य' होता है। इसी नाम पर चंद्रगुप्त के वंश का नाम मौर्य वंश पड़ गया था। चंद्रगुप्त मौर्य 'क्षत्रिय वर्ण' के थे। बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में चंद्रगुप्त 'मोरीय क्षत्रिय' कहा गया है।
चंद्रगुप्त मौर्य-
चंद्रगुप्त मौर्य मौर्य वंश के संस्थापक थे। उन्होंने लगभग 322 ईसा पूर्व से मगध पर शासन करना प्रारंभ किया। उन्होंने 298 ईसा पूर्व तक शासन किया। उनके शासनकाल में उनके राजनीतिक गुरु चाणक्य का विशेष प्रभाव रहा। चाणक्य तक्षशिला में निवास करने वाले एक ब्राह्मण थे। उनका पालन पोषण तथा शिक्षा उनकी माता के संरक्षण में हुई थी। विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि, धनानंद ने अपने भरे दरबार में ब्राह्मण चाणक्य का अपमान किया था। अपमानित होकर उन्होंने प्रण किया कि वे नंद वंश को समूल नष्ट कर देंगे। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग रहकर चंद्रगुप्त के साथ मिलकर नंद वंश का समूल विनाश कर दिया और मगध पर मौर्य वंश की नींव रखी। चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना की थी। इस ग्रंथ में उन्होंने चक्रवर्ती सम्राट, राजा के कर्तव्य, उस समय की राजनीतिक स्थिति, विस्तृत कर प्रणाली, आदि के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ में प्राचीन भारतीय राजनीति का उल्लेख मिलता है।
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चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की सीमा आर्यावर्त के विस्तृत भू-भाग में फैली हुई थी। उनका साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में फारस (ईरान), पूर्व में बंगाल, उत्तर में कश्मीर और दक्षिण में मैसूर (कर्नाटक) तक फैला हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य ने शासनकाल में यूनान के शासक सेल्यूकस निकेटर से युद्ध किया था एवं उसे युद्ध में पराजित किया था। उसके पश्चात उन्होंने उसके साथ संधि कर ली थी। संधि के पश्चात सेल्यूकस निकेटर ने चंद्रगुप्त मौर्य से 500 हाथी लिए थे। इसके बदले में उसने चंद्रगुप्त मौर्य को अराकोसिया (कंधार), एरिया (हेरात), जेड्रोसिया (बलूचिस्तान) तथा पेरीपेनिसदाई (काबुल) के कुछ क्षेत्र दे दिए। इसके अतिरिक्त उसने अपनी पुत्री 'हेलेना' का विवाह चंद्रगुप्त से करवा दिया। इसके बाद सेल्यूकस निकेटर में यूनान से अपना राजदूत मेगस्थनीज चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त के दरबार में काफी लंबा समय व्यतीत किया। उसने मौर्य प्रशासन के बारे में अपनी रचना 'इंडिका' में लिखा। यूनान के लेखकों ने पाटलिपुत्र को 'पालिब्रोथा' कहा है। चंद्रगुप्त मौर्य ने बंगाल पर विजय प्राप्त की थी। इस विषय में 'महास्थान अभिलेख' से जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत पर भी विजय प्राप्त की थी। इसका उल्लेख तमिल ग्रंथ 'मुरनानूर' और 'अहनानूर' एवं अशोक के अभिलेखों में मिलता है। चंद्रगुप्त मौर्य के समय राज्य में अकाल भी पड़ा था। उन्होंने इसके लिए विभिन्न राहत कार्य भी किए थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत के पश्चिमी क्षेत्र में सौराष्ट्र तक विजय प्राप्त की थी। इसका उल्लेख 'रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख' में मिलता है। इस प्रदेश में चंद्रगुप्त मौर्य ने पुष्यगुप्त को राज्यपाल नियुक्त किया था। उसने यहाँ पर 'सुदर्शन झील' बनवाई थी। अतः स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता, कुशल प्रशासक तथा साम्राज्य निर्माता थे। उनकी प्रशासनिक योग्यता उत्कृष्ट थी। वे रचनात्मक प्रतिभा के धनी थे। उनके जीवन में उनके गुरु कौटिल्य (चाणक्य) का विशेष प्रभाव रहा। उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ चंद्रगुप्त को प्रदान की। दोनों ने मिलकर भारत में एक उत्कृष्ट प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की, जो कालांतर में सभी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार रही।
चंद्रगुप्त मौर्य जैन मतानुयायी थे। वे एक राजर्षि थे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज वैभव के सभी सुखों को त्याग दिया। उन्होंने अपने पुत्र को मगध का सिंहासन दे दिया। इसके पश्चात उन्होंने जैनमुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा प्राप्त की। अंत में उन्होंने 298 ईसा पूर्व में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में जाकर जैन धर्म की 'संथारा प्रथा' के अनुसार अपने प्राणों का त्याग कर दिया।
बिंदुसार-
बिंदुसार चंद्रगुप्त मौर्य की उत्तराधिकारी थे। उन्होंने 298 ईसा पूर्व से शासन करना प्रारंभ किया। उन्होंने लगभग 273 ईशा पूर्व तक शासन किया। वायुपुराण में बिंदुसार को 'भद्रसार' अथवा 'मद्रसार' कहा गया है। बिंदुसार को 'अमित्रघात' की संज्ञा दी गई है। इसका शाब्दिक अर्थ 'शत्रु विनाशक' होता है। जैन ग्रंथों में बिंदुसार को 'सिंहसेन' कहा गया है। इनके काल में भी चाणक्य ही प्रधानमंत्री थे। बिंदुसार के राज दरबार में यूनानी राजदूत 'डायमेकस' आया था। इसे मेगस्थनीज का उत्तराधिकारी कहा जाता है। डायमेकस को सीरिया के शासक एंटीओकस प्रथम ने भेजा था। बिंदुसार तथा एंटीयोकस प्रथम के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध थे। साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि बिंदुसार ने सीरियाई शासक से तीन वस्तुओं की मांग की थी-
1. सूखी अंजीर
2. अंगूरी मदिरा
3. एक दार्शनिक
एंटीयोकस प्रथम ने प्रथम दो मांगों को मानकर दोनों वस्तुएँ भिजवा दी। किंतु उन्होंने तीसरी मांग दार्शनिक भेजने से मना कर दिया। उसका कहना था कि यूनानी कानून के अनुसार दार्शनिकों का कभी विक्रय नहीं हो सकता। डायमेकस के अतिरिक्त बिंदुसार के दरबार में 'डायनोसिस' नामक राजदूत भी आया था। उसे मिश्र के शासक टॉलेमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने भेजा था।
बिंदुसार के समय में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे। इन विद्रोहों को दबाने हेतु बिंदुसार ने पहले अपने जेष्ठ पुत्र सुसीम को भेजा। वह इसे रोकने में असफल रहा। इसलिए बाद में बिंदुसार ने अपने छोटे पुत्र अशोक को भेजा। 'दिव्यावदान' के अनुसार बिंदुसार की राजसभा में आजीवक संप्रदाय का एक ज्योतिषी 'पिंगलवत्स' निवास करते थे।
अशोक-
अशोक बिंदुसार के पुत्र थे। उन्होंने लगभग 273 ईसा पूर्व से शासन करना प्रारंभ किया। पहले वे उज्जैन के राज्यपाल के रूप में नियुक्त थे। उनका वास्तविक राज्याभिषेक 269 ईसा पूर्व में हुआ था। अशोक ने बिंदुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध पर अपना अधिकार कर लिया था। उन्होंने सत्ता प्राप्ति हेतु गृह युद्ध में अपने भाइयों की हत्या की थी और पाटलिपुत्र के शासन को अपने हाथों में ले लिया था। इसका उल्लेख 'महाबोधिवंश' में मिलता है। भारत, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों से अशोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों में उन्हें 'देवनांपिय पियदसि' अर्थात् 'देवों को प्यारा' की उपाधि दी गई है। इसके अतिरिक्त पुराणों में अशोक को 'अशोकवर्धन' कहकर पुकारा गया है। गुर्जर, मास्की, उदेगोलम और नेट्टूर अभिलेखों में अशोक नाम का उल्लेख मिलता है। दीपवंश में उन्हें 'करमोली' की संज्ञा दी गई है। अशोक का मास्की अभिलेख राज्याभिषेक से संबंधित है। इस अभिलेख में उसने स्वयं को 'बुद्ध शाक्य' कहा है। अशोक के अभिलेखों को सबसे पहले 1837 ईस्वी में 'जेम्स प्रिंसेप' नामक विद्वान ने पढ़ा था। सन् 1750 इस्वी में 'टीफेंथैलर' नामक विद्वान ने सर्वप्रथम दिल्ली में अशोक के स्तंभ का पता लगाया था।
साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि अशोक एक बहुत बड़े साम्राज्य के सम्राट थे। उनका साम्राज्य आर्यावर्त की उत्तरी-पश्चिमी में अफगानिस्तान, पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात), पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिण में कर्नाटक तक विस्तृत था। अशोक का अधिकार कश्मीर पर भी था। इसका उल्लेख 'कल्हण' कृत 'राजतरंगिणी' में मिलता है। इस ग्रंथ के अनुसार अशोक ने वहाँ धर्मारिणी विहार में 'अशोकेश्वर' नामक मंदिर बनवाया था। उन्होंने कश्मीर में 'श्रीनगर' और नेपाल में 'देवपत्तन' नामक नगरों को स्थापित करवाया था।
अशोक ने अपने शासन के 8वें वर्ष लगभग 261 ईसा पूर्व में कलिंग (वर्तमान उड़ीसा राज्य का दक्षिणतम भाग) पर आक्रमण किया था। तत्कालीन समय में कलिंग की राजधानी 'तोसली' थी। उस पर अशोक ने अधिकार कर लिया था। इस युद्ध के विषय में अशोक के 13 वें अभिलेख में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। कलिंग युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ था इसे देखकर अशोक बहुत दुखी हुए और उन्होंने युद्ध की नीति का सदा के लिए त्याग कर दिया और अहिंसा की नीति को अपना लिया।
अशोक महान के प्रमुख अभिलेख-
भारत में शिलालेख पर लिखने की प्रथा सर्वप्रथम अशोक ने ही आरंभ की थी। उन्होंने अभिलेखों के माध्यम से जनता को संबोधित किया था। अशोक द्वारा लिखवाए गए अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किए जाते थे। तत्कालीन समय में तीन प्रकार के अभिलेख प्रचलित थे-
1. शिलालेख- इन्हें वृहद् शिलालेख और लघु शिलालेख में वर्गीकृत किया जा सकता है।
2. स्तंभ लेख- इन्हें दो वर्गों- (i) दीर्घ स्तंभ लेख और (ii) लघु स्तंभ लेख में बाँटा जा सकता है।
3. गुहालेख- गुफाओं में उत्कीर्ण किए जाने वाले अभिलेखों को गुहालेख कहा जाता है।
अशोक के दीर्घ स्तंभ लेख छः अलग-2 स्थानों में पाषाण स्थानों पर उत्कीर्ण किए गए थे। इनकी कुल संख्या सात है। यह दीर्घ स्तंभ लेख निम्नलिखित हैं-
मेरठ दिल्ली स्तंभ लेख
दिल्ली टोपरा स्तंभ लेख
लौरिया नंदनगढ़ स्तंभ लेख
इलाहाबाद स्तंभ लेख
रामपुरवा स्तंभ लेख आदि।
अशोक के कुछ स्तंभों पर केवल एक ही लेख प्राप्त हुआ है। इन्हें सात दीर्घ स्तंभ लेखों में शामिल नहीं किया जा सकता। अतः यह लघु स्तंभ लेख कहलाते हैं। ये लघु स्तंभ लेख सारनाथ, साँची, रम्मिनदेई आदि स्थानों पर प्राप्त हुए हैं। अशोक के दीर्घ तथा लघु स्तंभ लेख, लघु शिलालेख तथा गुहालेख 'ब्राह्मी लिपि' में लिखे गए हैं। केवल मानसेहरा और शाहबाज़गढ़ी अभिलेखों की लिपि 'खरोष्ठी' है। इस लिपि की प्रमुख विशेषता है कि यह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है।
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अशोक के वृहद् शिलालेख-
इनकी कुल संख्या 14 है। ये आर्यावर्त के 8 स्थानों से प्राप्त हुए हैं। अशोक के प्रमुख शिलालेख तथा उनके प्राप्ति स्थल निम्नलिखित हैं-
1. मानसेहरा- हज़ारा (पाकिस्तान)
2. शाहबाज़गढ़ी- पेशावर (पाकिस्तान)
3. गिरनार- जूनागढ़ (गुजरात)
4. कालसी- देहरादून (उत्तराखंड)
5. जौगड़- गंजाम (ओडिशा)
6. धौली- पुरी (उड़ीसा)
7. एर्रगुड़ी- कुर्नूल (आंध्र प्रदेश)
8. सोपारा- थाणे (महाराष्ट्र)
9. गुर्जरा- दतिया (मध्य प्रदेश)
10. मास्की- रायचूर (कर्नाटक)
11. भाब्रू- बैराट (राजस्थान)
12. ब्रम्हगिरी- मैसूर (कर्नाटक)
13. जटिंग रामेश्वर- कर्नाटक
14. अहरौरा- मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
15. राजुलमंडगिरि- कुर्नूल (आंध्र प्रदेश)
16. सासाराम- बिहार
17. सारोमारो- मध्य प्रदेश
18. गोविमठ- मैसूर (कर्नाटक)
19. उदेगोलम- बेल्लारी (कर्नाटक)
20. निट्टूर- कर्नाटक
21. सन्नाति- कर्नाटक
अशोक के प्रमुख शिलालेख एवं उनमें वर्णित विषय वस्तु निम्नलिखित है-
1. प्रथम शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक ने लिखवाया है कि सभी मनुष्य मेरी संतान की तरह है। इस शिलालेख में पशुओं के संरक्षण के विषय में कहा गया है तथा पशुबलि की निंदा की गई है।
2. दूसरा शिलालेख- इस शिलालेख में मानव चिकित्सा तथा पशु चिकित्सा के विषय में लिखा गया है तथा लोक कल्याणकारी कार्य करने के लिए कहा गया है। इस शिलालेख में चोल, पांड्य, चेर (केरलपुत्त) तथा सत्तियपुत्त शासकों और उनके राज्यों का उल्लेख किया गया है।
3. तीसरा शिलालेख- इस शिलालेख में राजकीय अधिकारियों (युक्त, रज्जुक तथा प्रादेशिक) को हर पाँच वर्ष बाद राज्य का दौरा करने का आदेश दिया गया है।
4. चौथा शिलालेख- अशोक के इस शिलालेख में धर्माचरण के भेरीनाद द्वारा धम्म का उद्घोष दिया गया है।
5. पाँचवा शिलालेख- इस शिलालेख में मौर्यकालीन समाज तथा वर्ण व्यवस्था का वर्णन किया गया है। इसमें धम्म महामात्रों की नियुक्ति के बारे में बताया गया है।
6. छठा शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक ने आत्मनियंत्रण की शिक्षा प्रदान की है। इसमें कहा गया है कि आम जनता किसी भी समय राजा से मिल सकती है।
7. सातवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में सभी संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता के भाव के विषय में चर्चा की गई है।
8. आठवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में सम्राट की धर्मयात्राओं का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त सम्राट के बोधगया के भ्रमण के विषय में जानकारी दी गई है।
9. नवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में धम्म समारोह की चर्चा की गई है तथा शिष्टाचार तथा सच्ची भेंट का उल्लेख किया गया है।
10. दसवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक ने राजा और उच्च अधिकारियों को हमेशा प्रजा के हित के विषय में सोचने का आदेश दिया है। इस शिलालेख में गौरव तथा ख्याति की निंदा की गई है। इसमें धम्म नीति को श्रेष्ठ बताया गया है।
11. ग्यारहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक की धम्म नीति की व्याख्या की गई है।
12. बारहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में सर्वधर्म समभाव तथा स्त्री महामात्र का उल्लेख किया गया है।
13. तेरहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक के कलिंग युद्ध का वर्णन तथा उसके पड़ोसी राज्यों का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें अपराध करने वाली जाति आटविक की चर्चा की गई है।
14. चौदहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख अशोक ने जनता को धार्मिक जीवन बिताने की प्रेरणा दी है।
आशा है, उपरोक्त लेख प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे परीक्षार्थियों के लिए महत्वपूर्ण और उपयोगी होगा। धन्यवाद।
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Ajay Karma
Posted on May 05, 2021 03:05AM
Ajay