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इतिहास - दक्षिण भारत के राज्य (800 ई. से 1200 ई. तक)

ऐसा माना जाता है कि पूर्व मध्यकाल में देश के उत्तरी और दक्षिणी भाग के राज्यों के बीच निकटता बढ़ी थी। इस निकटता 3 प्रमुख कारण थे।

(1) दक्षिण भारत के उत्तरी भाग के राज्यों ने अपने राज्य अधिकार को गंगा नदी की घाटी तक बढ़ाने का प्रयत्न किया।

(2) दक्षिण भारत में शुरू हुए धार्मिक आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो गए।

(3) दक्षिण भारत के विभिन्न शासकों ने धार्मिक कर्मकांडों और अध्ययन अध्यापन के लिए उत्तर भारत के ब्राह्मण वर्ग को दक्षिण भारत में बसने के लिए आमंत्रित किया।

दक्षिण भारत में आने वाले ब्राह्मणों को भूमि प्रदान की गई, परिणाम स्वरुप विशाल भारत देश के दोनों भागों के राज्यों के बीच निकटता बढ़ने लगी। उत्तर और दक्षिण भारत के राज्य उस प्रकार अलग-अलग नहीं रहे जिस प्रकार से वे प्राचीन काल में थे।

आठवीं शताब्दी में दक्षिण (भारत विंध्य पर्वत के आने का भारत) अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था। इनमें प्रमुख राजवंश थे- पल्लव, राष्ट्रकूट, चालुक्य, चोल और पाण्डय

1.पल्लव राजवंश :-

चौंथी शताब्दी में पल्लव का उदय कृष्णा नदी के दक्षिण प्रदेश (आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु) में हुआ। नरसिंह वर्मन प्रथम एवं नरसिंह वर्मन द्वितीय इस वंश के प्रतापी शासक हुए। नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय को युद्ध में पराजित कर 'वातापीकोंड' (वातापी को जीतने वाला) की उपाधि धारण की तथा कांचीपुरम को अपनी राजधानी बनाया। कालान्तर मे चोल, चालुक्य, पाण्डय, और राष्ट्रकूटों से पल्लवों का संघर्ष चलता रहा तथा 899 ई. में इस वंश के अंतिम शासक अपराजित वर्मन को चोलों ने हराकर उनके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार पल्लव वंश का अंत हो गया।

■ पल्लव शासन काल की विशेषताएँ-

(1) पल्लवों का शासन प्रबंध सुव्यवस्थित था।

(2) इनके काल में शिक्षा साहित्य एवं कला की उन्नति हुई, जिसका श्रेष्ठ उदाहरण पल्लवों द्वारा बनाया गया कांचीपुरम का शिक्षा केंद्र था।

(3) यहां की स्थानीय भाषा तमिल थी, जिसमें उत्तम साहित्य की रचना हुई।

(4)अधिकांश पल्लव राजा भगवान शिव के भक्त थे तथा हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार अधिक था।

(5) पल्लवों ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसमें कांची के 'धनराज''कैलाशनाथ' मंदिर तथा 'महाबलीपुरम' में समुद्र तट पर चट्टान को काटकर बनाए गये रथ मंदिर प्रसिद्ध हैं।

2. राष्ट्रकूट राजवंश :-

चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन के सामंत दंतिदुर्ग ने राष्ट्रकूट वंश की नींव डाली थी। राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में अपनी शक्ति तथा साम्राज्य विस्तार के लिए जाने जाते हैं। कृष्ण प्रथम, गोविंद द्वितीय, राजा ध्रुव, धारावर्ष, गोविंद तृतीय, अमोघवर्ष व कृष्ण द्वितीय इस वंश के प्रमुख शासक हुए। इनकी राजधानी 'मान्यखेट' थी। कन्नौज तथा उत्तर भारत पर अधिकार करने के लिए राष्ट्रकूटों को गुर्जर प्रतिहार व पाल वंश से सतत् संघर्ष करना पड़ा, जिससे उनकी शक्ति कमजोर हो गई थी। सन् 973 ई. में चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय को परास्त कर राष्ट्रकूट की शक्ति का दमन किया व उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया।

■ राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने एलोरा की गुफा में प्रसिद्ध 'कैलाश मंदिर' का निर्माण पहाड़ी को काटकर करवाया था। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर अद्वितीय माना जाता है। ■

राष्ट्रकूट शासन काल की विशेषताएँ-

(1) प्रशासनिक व्यवस्था में राजा सर्वोच्च अधिकारी होता था तथा वह मंत्रियों की सहायता से अपना शासन सुचारू रूप से चलता था।

(2) राष्ट्रकूट राजा शिक्षा एवं कला के संरक्षक थे। अमोघवर्ष प्रथम एक उच्चकोटि का लेखक था। इस वंश के शासकों ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया तथा अपने इष्ट देवताओं (शिव व विष्णु) की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की।

3. कल्याणी के चालुक्य राजवंश :-

राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय को परास्त कर चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अपने राज्य की स्थापना कर 'कल्याणी' को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए यह कल्याणी के चालुक्य कहलाए। तैलप द्वितीय ने लगभग 24 वर्षों तक शासन चलाया। इस वंश के अन्य प्रमुख शासक सत्याश्रय, सोमेश्वर प्रथम, विक्रमादित्य पंचम, व जयसिंह आदि हुए।

चालुक्य शासन काल की प्रमुख विशेषताएँ :-

(1) चालुक्य राजा उदार व कला प्रेमी थे।

(2) वे सभी धर्मों का आदर करते थे। ब्रह्मा, विष्णु व शिव में इनकी विशेष विशेष में इनकी विशेष विशेष आस्था थी, यह उनके द्वारा बनवाए गए मंदिरों से स्पष्ट होता है।

(3) चालुक्य कला की एक प्रमुख विशेषता हिंदू देवताओं के लिए चट्टानों को काटकर मंदिरों का निर्माण करवाना था। वीरूपाक्ष का मंदिर इस कला का सबसे महत्वपूर्ण मंदिर था।

4. चेर राज्य राजवंश :-

अशोक के शिलालेखों के अनुसार चेर वंश की स्थापना बहुत प्राचीन कला में हुई। इनके राज्य में मलाबार, त्रावणकोर और कोचीन सम्मिलित थे। चेर राज्य के बंदरगाह व्यापार के बड़े केंद्र थे। चोल वंश से चेर-वंश के वैवाहिक संबंध थे। ये अधिक समय शासन नहीं कर सकें।आठवीं शताब्दी पल्लवों ने दसवीं शताब्दी में चोलों ने तथा तेरहवीं शताब्दी में पाण्डयों ने चेर राज्य पर अधिकार कर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था।

5. पाण्डय राज्य :-

पाण्डय वंश प्राचीन तमिल राज्यों में से एक प्रमुख वंश था, जिनकी राजधानी मदुरै थी। पाण्डय राजाओं में 'अतिकेशरी मारवर्मन' प्रसिद्ध शासक रहा, जिसनें सातवीं शताब्दी में चेरों को हराया और चालुक्यों का साथ देकर पल्लवों को हराया तथा अपना राज्य- विस्तार एक छोटे से भाग में किया। नौवीं शताब्दी में जटा वर्मन सुंदर प्रथम के प्रयासों से पाण्डयों की शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी। उसने चेर, चोल, काकतीय, होयसल आदि शासकों को हराया और कांची पर भी अधिकार किया। पाण्डय राजाओं द्वारा अनेक मंदिर बनवाए गए, जिसमें श्रीरंगम व चिदंबरम के मंदिर प्रसिद्ध है। तेरहवीं शताब्दी में अन्त में यह राज्य समाप्त हो गया।

6. चोल साम्राज्य :-

नौवीं शताब्दी मध्य से बारहवीं शताब्दी तक तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश के कुछ भागों व कर्नाटक पर शासन करने वाला चोल वंश दक्षिण क्षेत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली रहा। इस काल के चोल राजाओं को इतिहासकारों ने शाही चोल कहा है। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की। उसने तंजौर के पल्लवों को हराकर तंजौर पर अधिकार किया।

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