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भक्ति काल (सन् 1318 से 1643 ई. तक) || हिन्दी पद्य साहित्य का इतिहास || Hindi Padya Sahitya - Bhakti Kal

इस काल में मुसलमानों के आक्रमणों ने देशी राज्य-शक्तियों के शौर्य को पराभूत कर मुस्लिम प्रभुत्व की स्थापना की। विधर्मियों के अत्याचारों ने निरीह जनता को त्रस्त किया। इन आक्रामकों द्वारा मूर्तियाँ तोड़ी गई, धर्म-ग्रंथ जलाए गए, मंदिर बहाए गए, फसलें रौंदी गई तथा जनता लूटी गई। भारतीय देशी राजा उसकी रक्षा में असमर्थ सिद्ध हुए। ऐसी स्थिति में निरीह जनता के सामने ईश्वर को पुकारने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग न रहा। अतः इस समय देश में ईश्वर भक्ति की लहर दौड़ गई। दक्षिणी भारत में आलवारों और नयवारों में लहराती भक्ति भाव धारा मे उत्तरी भारत की ओर उन्मुख होकर उसे और भी गति तथा वेग दिया। काव्य राजदरबारों से हटकर विरक्त साधुओं की कुटियों की शरण में आया। वह काल दो विभिन्न संस्कृतियों के संघर्ष का काल था। एक ओर प्राचीन हिन्दू संस्कृति का दूसरी ओर थी मुस्लिम संस्कृति। एक ओर थी विजित और शासित हिन्दू जाति और दूसरी ओर थी नवोदित इस्लामी धर्म की कट्टरता लिए गर्व भरी मुस्लिम जाति। इस राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक संकट की घड़ी में आकुल हिन्दू समाज में भक्त्योन्मुखता को और भी बल मिला। किन्तु आक्रामकों द्वारा मूर्तियों तोड़े जाने पर भी उनका कोई अहित न कर सकने वाले ईश्वर की ओर से लोगों का विश्वास डगमगा गया। अतः भक्ति साहित्य की दो धाराएँ हो गई।
[१] निर्गुण-भक्ति काव्य-धारा
[२] सगुण भक्ति काव्य-धारा।

उपर्युक्त दो काव्य-धाराओं में भी 'ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्ति काव्य-धारा' तथा 'प्रेंमाश्रयी निर्गुण-भक्ति काव्य-धारा' एवं 'कृष्ण भक्ति धारा' तथा 'राम भक्ति धारा' के रूप में चार धाराएँ हो गई। इस प्रकार इस काल के साहित्य को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है -

भक्ति काव्य धारा
[१] निर्गुण-भक्ति काव्य-धारा
(अ) ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्ति काव्य-धारा
(ब) प्रेंमाश्रयी निर्गुण-भक्ति काव्य-धारा
[२] सगुण भक्ति काव्य-धारा
(अ) कृष्ण भक्ति धारा
(ब) राम भक्ति धारा

[१] निर्गुण-भक्ति काव्य-धारा

इस धारा के कवियों पर सिद्धों और नाथों से चली आती कवि-विरोधी संघर्ष-परम्परा, हठयोग, साधना पद्धति, वैष्णवों की अहिंसा, हिन्दुओं के अद्वैतवाद तथा मुस्लिम धर्म के एकेश्वर वाद का सम्मिलित प्रभाव रहा। ये निर्गुण भक्ति धारा के संत कवि ब्रह्म की निराकारता अर्थात् निर्गुणता में विश्वास करते थे। इनमें एक ऐसा था जो ज्ञान के द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव मानता था। दूसरा वर्ग के प्रेंम की पीर के द्वारा निराकार ब्रम्ह की प्राप्ति पर बल देता था। इस प्रकार निर्गुण भक्तिकाव्य धारा दो भागों में विभाजित होकर प्रवाहित हुई जिन्हें ज्ञानाश्रयी एवं प्रेंमाश्रयी धारा नाम दिया गया।

(अ) ज्ञानाश्रयी धारा

इस धारा के प्रमुख कवि कबीरदास थे। उन्होंने अपने काव्य में आडम्बर का खुलकर विरोध करते हुए हिन्दू और मुसलमान दोनों की रूढ़िवादिता, धार्मिक का खण्डन किया। उन्होंने आचरण की शुद्धता एवं समता की आवश्यकता का प्रतिपादन किया। यद्यपि ये कवि हठयोग की साधना तथा ज्ञान द्वारा ब्रम्ह-प्राप्ति के मत को मानते थे किन्तु इनकी विरहिणी आत्मा में प्रियतम ईश्वर से मिलने के लिए प्रेंम की तीव्रता भी थी। इस प्रकार इनकी निर्गुणियाँ वाणी में ज्ञान, प्रेंम, योग तथा भक्ति का अद्भुत समन्वय है।

ज्ञानाश्रयी काव्यधारा की मुख्य प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
1. इस धारा के कविगण एवं साधु-संत निर्गुणवादी थे और प्रायः नाम की उपासना करते थे।
2. ये लोग रूढ़िवाद और मिथ्या आडम्बर के विरोधी थे।
3. ये लोग गुरु को लगभग ईश्वर के बराबर ही महत्ता देते थे।
4. ये जाति-पाँति के बंधनों को नहीं मानते थे। "जाति-पांति पूछे नहि कोई, हरि को असो हरि को होई।"
5. इस धारा के कवियों की रचना मुक्तक रूप में हैं। काव्य शास्त्र या छंदशास्त्र के नियमों की इन्होंने कभी चिन्ता नहीं की।
6. "साखी" "सबद" एवं "रमैनी" ("दोहा") पद ही इनके काव्य-रूप हैं।
7. इनके काव्य की भाषा सीधी-सादी, अलंकार-विहीन तथा अनेक भाषाओं एव बोलियों का मिश्रण होती थी। पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी आदि का मिश्रण होने के कारण इनकी भाषा को 'सघुक्कड़ी' नाम दिया गया है।
8. ये लोग सच्चे मानव-धर्म को मानते थे। साम्प्रदायिकता या वर्णाश्रम संबंधी विशेष धर्म को नहीं मानते थे। ये वैयक्तिक साधना पर अधिक बल देते थे।
ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि हैं - कबीरदास, रैदास, दादू दयाल, गुरुनानक, सुंदरदास, मलूकदास, धर्मदास, सहजोबाई, पलटूदास, गरीबदास।

(ब) प्रेंमाश्रयी धारा

निर्गुण भक्ति काव्य-धारा में प्रेंमाश्रयी काव्य धारा का विशिष्ट स्थान है, क्योंकि यहाँ वह धारा है जिसमें देशकाल की परिधि खण्डित हुई एवं भिन्न-भिन्न संस्कृतियों नीरक्षीरत् समायोजन स्थापित हुआ। प्रेंमाश्रयी काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एक विशेषताएँ इस प्रकार है -

1. प्रेंममार्गी कवियों की प्रेमगाथाएँ भारतीय चरित्र काव्यों की संबद्ध शैली पर न होकर, फारसी की मसनवी शैली पर लिखी गई। इनमें ईश्वर वन्दना, पैगंबर की स्तुति, तत्कालीन बादशाहों के प्रशस्ति गायन के साथ-साथ कथा का आरंभ किया गया है।
2. इस धारा के लगभग सभी कवियों ने प्रेंमाख्यानक प्रबंध काव्यों की रचना की है।
3. इनकी कथाएँ प्रायः हिन्दू जीवन से संबंधित है एवं उनमें भौतिक प्रेंम के आधार पर ईश्वरीय प्रेंम का प्रतिपादन किया गया है।
4. इनकी एक प्रमुख विशेषता यह रही कि इन्होंने भक्त को प्रेंमी एवं भगवान को प्रेयसी के रूप में स्वीकार किया।
5. इस प्रकार की प्रेंम गाथाएँ अधिकाशत: ऐसे मुसलमान कवियों ने लिखी, जिन्हें हिन्दू धर्म का भी अल्पाधिक तात्विक परिचय था। इन्होंने किसी सम्प्रदाय विशेष का खण्डन या मण्डन तो नहीं किया तथापि इनका झुकाव इस्लाम धर्म के प्रति ही रहा।
6. इन कवियों ने काव्य भाषा के रूप में अवधी भाषा को अपनाया।
7. इन्होंने दोहा और चौपाई छंदों का ही प्रयोग किया, क्योंकि इस समय ऐसी धारणा थी कि चोपाई छंद अवधी भाषा में अधिक सफल होता है। प्रेंमाश्रयी धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी थे। उनकी रचना पद्मावत हिन्दी साहित्य की अमर थाती है। प्रेंमाश्रयी धारा के कवियों पर सूफी संतों एवं योग साधकों का समन्वित प्रभाव परिलक्षित होता है, क्योंकि यह "प्रेंम की पीर" के माध्यम से ही निराकार ब्रम्ह की प्राप्ति संभव समझते थे। अतः इन्होंने हिन्दू घरानों की बहुचर्चित प्रेंम गाथाओं को विषय वस्तु के रूप में स्वीकार किया एव सूफी संतों से प्रभावित होकर उनका मसनवी शैली में वर्णन प्रस्तुत किया। फलस्वरूप आत्मा को प्रेंमी (मजनू) एवं परमात्मा को प्रेयसी (लैला) के रूप में स्वीकार किया। इनकी प्रबंध- पटुता सराहनीय थी क्योंकि इनमें प्रत्यक्षतः लौकिक कथानक होते हुए भी परोक्ष में आत्मा और परमात्मा के मिलन का है। रूपक है। इनकी समासोक्तियों में आध्यात्मिकता का पावन संदेश है तथा इनका पथ सर्वेश्वरवाद की ओर अग्रसर है।
प्रेंमाश्रयी धारा के प्रमुख कवि - मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, मे उसमान, शेख नवी, कासिम शाह और नूर मुहम्मद हैं।

[२] सगुण भक्ति काव्य-धारा

भक्ति काव्य में दूसरी धारा सगुण भक्ति की प्रवाहित हुई। इस धारा के कवियों ने ईश्वर की साकारता में विश्वास रखते हुए कृष्ण या राम रूप की लीलाओं का गान करके भक्ति का प्रचार किया। विद्यापति की गीत-माधुरी से सगुण भक्ति की भावभूमि पहले से ही तैयार थी।

रामानंद तथा वल्लभाचार्य की प्रेरणा ने सगुण भक्ति की धारा को और अधिक गति तथा वेग दिया। श्रीमद् भागवत् और बाल्मीकि रामायण को आधार मानकर, कृष्ण और राम की लीलाओं के चित्रण के रूप में कृष्ण-भक्ति-काव्य और राम भक्ति काव्य की दो धाराएँ इस सगुण भक्ति काव्य धारा से विभाजित होकर प्रवाहित हुई।

(अ) कृष्ण भक्ति धारा

कृष्ण काव्य ने हिन्दी साहित्य के कलेवर की ही वृद्धि नहीं की, अपितु उसकी कमनीयता में भी चार चाँद लगा दिए हैं तथा हिन्दी साहित्य को विश्व के उत्तमतम् साहित्य की श्रृंखला का माणिक बना दिया है। इस काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -
1. कृष्ण भक्ति के प्रादुर्भावकर्ता बल्लभाचार्य थे, जो कृष्ण के बालरूप के उपासक थे। अतः सभी अनुयाइयों ने बाल लीलाओं का ही अधिक वर्णन किया है।
2. इस धारा के कवियों ने कृष्ण को देव माना।
3. सभी ने कृष्ण की जन्मस्थली की भाषा "बृज" को ही काव्य भाषा के रूप में स्वीकार किया।
4. इस भक्ति-उन्मत्त धारा में मुक्त रचनाएँ अधिक लिखी गई एवं तद्नुसार गीत, कवित्त, सवैया तथा दोहा छंदों को विशेष उपयुक्त समझा।
5. इस धारा की रचनाओं में वात्सल्य एवं श्रृंगार रसों का पूर्ण परिपाक प्राप्त होता है। श्रृंगार के उभय पक्षों का मर्मस्पर्शी चित्रण प्रस्तुत करने में कवि सिद्धहस्त थे। सूर तो इस क्षेत्र के सम्राट हैं। इनका "उद्धव-गोपी संवाद" आज भी अनुपमेय है।
6. इस धारा के अधिकांश भक्त कवियों ने "सख्यभाव" से कृष्ण की उपासना की।
7. इनकी भाषा में सरसता, लालित्य एवं श्रुतिमाधुर्य है। इनका काव्य प्रासादिकता लिए हुए माधुर्य से परिप्लावित है। गेयता सर्वत्र व्याप्त है जो आकर्षणक आधार है।

श्री मद् भागवत् के दशम स्कंध में कृष्ण की लीलाओं का विवरण प्राप्त होता है। मैथिल कोकिल विद्यापति ने कृष्ण की विविध लीलाओं का चिरस्मर्णीय गायन प्रस्तुत किया, जिसे गाकर महाप्रभु चैतन्य, चैतन्य-शून्य हो जाते थे। महात्मा वल्लभाचार्य ने इस लीला गायन को भक्ति साधना के स्वरूप में स्वीकार किया जो उनके समय में दो एक संप्रदाय का रूप प्राप्त कर चुका था। इसी लीला गायन भक्ति-पद्धति को उनके शिष्य सूरदास ने महिमा मंडित कर दिया। वस्तुतः सूरदास ही इस धारा के सर्वोपरि प्रतिनिधि गायक हैं और अन्य भावुकों के प्रेरणा स्रोत हैं। नेत्रहीन सूर की अंतदृष्टि ने कृष्ण की बाल लीलाओं की झाँकियों का कोना-कोना झाँका और उनके स्वाभाविक मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किए। बालक कृष्ण का लीलांकन तथा उनके विरह में आकुल गोपियों के विरह वर्णन में वात्सल्य एवं श्रृंगार के कुशल चितेरे सूर ने जो चित चित्रित किये। वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय हैं। उन्होंने उद्धव-गोपी-प्रसंग में भ्रमर गीत के माध्यम से अत्यंत सरलता एवं सहजता से निर्गुण पर सगुण की और ज्ञान पर प्रेंम की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया वह दर्शनीय ही नहीं स्वाभाविकता से भी परिपूर्ण है। यही कारण है कि उनका अमर रचना "सूरसागर" उस धारा की प्रतिनिधि रचना है। उनकी अन्य रचनाएँ हैं, 'साहित्य लहरी' एवं 'सूरसारावली'
कृष्ण भक्ति धारा के अन्य श्रेष्ठ कवि हैं - नंददास, कुम्भनदास, परमानंददास, गोवर्धनदास, नाभादास, छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, मीरा बाई आदि।

(ब) राम भक्ति धारा

राम भक्ति धारा वह पुनीत पावन अनवरत प्रवाहमय सलिला है, जिसमें आज भी असंख्य जन अवगाहन कर अपने आपको धन्य मानते हैं। तुलसी-सी पावन तुलसी की लेखनी ने जिसे भक्तिरस से प्लावित किया और अपने युग को स्वर्णयुग को संज्ञा के विभूषित करने हेतु जन-मानस को असीम आकर्षण से अभिभूत कर दिया। इस धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ निम्नानुसार हैं -
1. इस धारा के कवियों ने राम को अपना आराध्यदेव मानकर उनके मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप का चित्रण प्रस्तुत किया है।
2. राम के चरित्र के माध्यम से भारतीय संस्कृति के समन्वयवादी रूप की पुनः प्रतिष्ठा हुई।
3. इस धारा के कवियों ने दास्यभावना से भक्ति निवेदन किया है। अतः उनमें दीनता एवं पूर्ण समर्पण की भावना दृष्टव्य है।
4. इन कवियों के काव्य में भाव एवं कला का मणिकांचन समन्वय हुआ है। दोनों ही पक्ष चर्मोत्कर्ष पर पहुँच गए हैं।
5. काव्य भाषा के रूप में ब्रज एवं अवधि दोनों भाषाओं को अपनाया गया।
6. इन्होंने दोहा, चौपाई, कवित्त आदि छंदों को विशेष रूप से अपनाया लेकिन अन्य अनेक छंदों का प्रयोग भी पूर्ण सफलता के साथ किया है।

गोस्वामी तुलसीदास इस धारा के प्रमुख कवि हैं। इन्होंने राम के पुरषोत्तम रूप का अंकन कर लोक मर्यादाओं का पाठ पढ़ाया। उनके राम में शक्ति, शील और सौंदर्य का समन्वय है, और राम का पूरा परिवार, भारतीय आदर्श का उदाहरण है।

तुलसीदास के रामचरित मानस में बाल्मीकि रामायण तथा अध्यात्म रामायण दोनों को आधार मानकर राम के लोक-कल्याणकारी आदर्श चरित्र का चित्रण किया है। उनके राम विष्णु के अवतार और साक्षात् ब्रम्ह स्वरूप हैं। उनके आराध्य राम और निर्गुण ब्रम्ह में अभेद है। उन्होंने पाप के बिना और धर्मोद्धार के लिए अवतार लिया है। वे लोक-हित के लिए अन्याय और पाप-रूप रावण का नाश करते हैं। इस प्रकार तुलसी ने परोक्ष रूप से अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का शुभ संदेश भी दिया है। तुलसी ने समाज, साहित्य, दर्शन सभी में समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित लगभग सभी शैलियों में अपनी रचनाएँ की हैं। रामचरित मानस में उन्होंने अवधी के साथ बीच-बीच में संस्कृत का प्रयोग भी किया है। उन्होंने 'गीतावली' में ब्रजभाषा को अपनाया है। 'पार्वती-मंगल', 'रामलला नहछू' तथा 'जानकी मंगल' की रचना लोक-शैली में की है। 'विनय पत्रिका' में पद शैली का प्रयोग है। इसमें तुलसी ने पत्रिका द्वारा अपने आराध्य राम के पास अपनी दीनता तथा विनय की गुहार की है। इस प्रकार तुलसी ने ब्रज तथा अवधी दोनों में ही काव्य रचनाएँ की। इनके काव्य में छंद विविधता है। काव्य रूपों की दृष्टि से उन्होंने प्रबंध एवं मुस्तक दोनों ही काव्य रूपों को अपनाया है।

भक्तिकालीन काव्य की उपर्युक्त भिन्न-भिन्न धाराओं में भक्ति का प्राधान्य, गुरु-महिमा, नाम-महिमा, आचरण की शुद्धता आदि पर समान रूप से बल दिया गया है । इस काल में भाव तथा कला दोनों पक्षों की दृष्टि से हिन्दी काव्य को स्वर्ण-युग कहा गया है। राम भक्ति के प्रमुख कवि - तुलसीदास, अग्रदास, नावादास एवं हृदय राम हैं।

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(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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